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________________ आचारांग सूत्र---द्वितीय श्रु तस्कन्ध के प्रमाण का भी उल्लेख कर दिया गया है।' स्थानांग, बृहत्कल्प आदि सूत्र में भी साधु द्वारा ग्रहणीय वस्त्र के प्रकारों का नामोल्लेख किया गया है / स्थानांग सूत्र में जिन 5 प्रकार के वस्त्रों का उल्लेख है, उनमें क्षौमिक और तूलकृत का नामोल्लेख नहीं है, इनके बदले 'तिरीदुपट्ट' का उल्लेख है, इन छह प्रकार के वस्त्रों की व्याख्या इस प्रकार है ___ जांगमिक = (जांगिक) जंगम (अस) जोवों से निष्पन्न / वह दो प्रकार का है--विकलेन्द्रियज और पंचेन्द्रियज / विकलेन्द्रियज पांच प्रकार का है 1. पट्टज 2. सुवर्णज (मटका) 3. मलयज 4. अंशक और 5. चीनांशुक / ये सब कीटों (शहतूत के कीड़े वगैरह) के मुंह से निकले तार (लार) मे बनते हैं।' पंचेन्द्रिय-निष्पन्न वस्त्र अनेक प्रकार के होते हैं जैसे 1. औणिक-(भेड़ बकरी आदि की ऊन से बना हुआ) 2. औष्ट्रिक--(ऊंट के बालों से बना) 3. मृगरोमज-शशक या मूषक के रोम या बालमृग के रोएं से बना, 4. किट्ट-(अश्व आदि के रोंए मे बना वस्त्र) और कुतप(चर्म-निष्पन्न या बाल मृग, चूहे आदि के रोंए से बना वस्त्र) 1. बौद्ध श्रमणों में लिये तीन वस्त्रों का विधान है-१. अन्तरवासक लुगी) 2. उत्तरासंग (चादर) 3. संघाटी (दोहरी चादर) तीन से अधिक वस्त्र रखने वाले भिक्षुको निस्सग्गिय पाचित्तिय (नैसर्गिकप्रायश्चित्त) आता है। देखें विनयपिटक भिक्खु पातिमोक्ख (20) भिक्षुणी के लिए पांच चीवर रखने का विधान है-भिक्खुणी पातिमोक्ख (25) तीन वस्त्र की मर्यादा के पीछे एक मनोवैज्ञानिक कारण का घटना के रूप में उल्लेख किया गया है, जो मननीय है। एक बार तथागत राजगह से वैशाली की ओर विहार कर रहे थे। मार्ग में भिक्षओं को चीवर से लदे देखा। सिर पर भी चीवर की पोटली, कंधे पर भी चीवर की पोटली, कमर में भो चीवर की पोटली बांधकर जा रहे थे। यह देखकर भगवान को लगा, यह मोघ-पुरुष (मूर्ख) बहुत जल्दी चीवर बटोरु बनने लगे, अच्छा हो मैं चीवर की सीमा बांध दू, मर्यादा स्थापित कर दू।... उस समय भगवान हेमन्त में अन्तराष्टक (माघकी अंतिम चार व फागुन की आरम्भिक चार रातें) की रातों में हिम-पात के समय रात को खली जगह में एक चीवर ले बैठे। भगवान को सर्दी न मालूम हुई। प्रथम याम (पहर) के समाप्त होने पर भगवान को सर्दी मालूम हुई, भगवान ने दूसरा चीवर और लिया और भगवान को सर्दी न मालूम हुई। बिचले याम के बीत जाने पर भगवान को सर्दी मालुम हुई तब भगवान ने तीसरे चीवर को पहन लिया और सर्दी न मालम हई। अंतिम याम के बीत जाने पर (पौ फटने के वक्त) सर्दी मालुस हई। तब भगवान ने चौथा चीवर ओढ लिया। तब भगवान को सर्दी न मालूम हई। तब भगवान को यह हा 'जो कोई शीताल (जिसको सर्दी ज्यादा लगती हो) सर्दी से डरने वाला कुलपुत्र इस धर्म में प्रवजित हुए हैं, वह भी तीन चीवर से गुजारा कर सकते हैं। अच्छा हो मैं भिक्षुओं के लिए चीवर की सीमा बांध, मर्यादा स्थापित करूं', तीन चीवरों की अनुमति हूँ।... - विनयपिटक, महावग्ग 8,4,3, पृ० 276-80 (राहुल) 2. विस्तार के लिए देखें (क) बृहत्कल्पभाष्य गाथा 3661-62 (ख) ठाणं (मुनि नथमल जी) पृ० 642 3. विस्तार के लिए देखें-(क) निशीथभाष्य चूर्णि गाथा 760 (ख) स्थानांग वृत्ति, पत्र 321 (ग) वृहत्कल्प भाष्य गा. 3661 की वृत्ति व चूर्णि (घ) विशेषावश्यक भाष्य, गाथा 878 वृत्ति (मूषिकलोमनिष्पन्नं = कौतवम्) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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