SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्ययन : तृतीय उदेशक : सूत्र : 23-26 25. वह साधक यह समझते हुए संयम-साधन में तत्पर हो जाता है। भगवान् से या अनगार मुनियों से सुनकर कुछ मनुष्यों को यह परिज्ञात हो जाता है, जैसे—यह अपकायिक जीवों की हिंसा ग्रन्थि है, मोह है, साक्षात् मृत्यु है, नरक है। फिर भी मनुष्य इस में (जीवन, प्रशंसा, सन्तान आदि के लिए) ग्रासक्त होता है / जो कि वह तरह-तरह के शस्त्रों से उदक-काय की हिंसा-क्रिया में संलग्न होकर अपकायिक जीवों की हिंसा करता है / वह केवल अप्कायिक जीवों की ही नहीं, किन्तु उसके आश्रित अन्य अनेक प्रकार के (त्रस एवं स्थावर) जीवों की भी हिंसा करता है। मैं कहता हूँजल के आश्रित अनेक प्रकार के जीव रहते हैं। हे मनुष्य ! इस अनगार-धर्म में, अर्थात् अर्हत्दर्शन में जल को 'जीव' (सचेतन) कहा है। जलकाय के जो शस्त्र हैं, उन पर चिन्तन करके देख ! भगवान् ने जलकाय के अनेक शस्त्र बताये हैं जलकाय की हिंसा, सिर्फ हिंसा ही नहीं, वह अदत्तादान---चोरी भी है / विवेचन अपकाय को सजीव--सचेतन मानना जैन दर्शन की मौलिक मान्यता है। भगवान् महावीर कालीन अन्य दार्शनिक जल को सजीव नहीं मानते थे, किन्तु उसमें आश्रित अन्य जीवों की सत्ता स्वीकार करते थे। तैत्तिरीय पारण्यक में 'वर्षा' को जल का गर्भ माना है, और जल को 'प्रजनन शक्ति' के रूप में स्वीकार किया है। 'प्रजनन-क्षमता' सचेतन में ही होती है, अतः सचेतन होने की धारणा का प्रभाव वैदिक चिंतन पर पड़ा है, ऐसा माना जा मकता है। किन्तु मूलतः अनगारदर्शन को छोड़कर अन्य सभी दार्शनिक जल को सचेतन नहीं मानते थे / इसलिए यहाँ दोनों तथ्य स्पष्ट किये गये हैं-(१) जल सचेतन है / (2) जल के आश्रित अनेक प्रकार के छोटे-बड़े जीव रहते हैं। अनगारदर्शन में जल के तीन प्रकार बताये हैं—(१) सचित्त-जीव-सहित / (2) अचित्त-निर्जीव / (3) मिश्र-सजीव-निर्जीव मिश्रित जल / सजीव जल, की शस्त्र-प्रयोग से हिंसा होती है / जलकाय के सात शस्त्र इस प्रकार बताये हैं... उत्सेचन कुएँ से जल निकालना, गालन-जल छानना, धोवन-जल से उपकरण बर्तन आदि धोना, स्वकायशस्त्र—एक स्थान का जल दूसरे स्थान के जल का शस्त्र है, 1. देखिए--श्री पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ पृ० 346, डा० जे० आर० जोशी (पूना) का लेख। 2. नियुक्ति गाथा 113-114 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy