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________________ द आचारांग सूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध असत्य अभियोग लगाने के समान है / आगमों में अभ्याख्यान शब्द निम्न कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है दोषाविष्करण-~-दोष प्रकट करना--(भगवती 5 / 6) / असद् दोष का प्रारोपण करना-(प्रज्ञापना २२॥प्रश्न०२) / दूसरों के समक्ष निंदा करना-(प्रश्न० 2) / असत्य अभियोग लगाना---(आचा० 113) / 23. लज्जमाणा पुढो पास / 'अणगारा मो' त्ति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि उदयकम्मसमारंभेणं उदयसत्थं समारंभमाणे अण्णे वऽणेगरूवे पाणे विहिंसति / 24. तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता-इमस्स चेव जीवितस्स परिदण-माणणपूयणाए जाती-मरण-मोयणाए दुक्खपडिघातहेतु से सयमेव उदयसत्थं समारंभति, अहिं वा उदयसत्थं समारंभावेति, अण्णे वा उदयसत्थं समारंभंते समणुजाणति / तं से अहिताए, तं से अबोधीए / 25. से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए। सोच्चा भगवतो अणगाराणं इहमेगेसि णातं भवति-एस खल गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु निरए। इच्चत्थं गढिए लोए, जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि उदयकम्मसमारंभेण उदयसत्थं समारंभमाणे अण्णे वऽणेगरूवे पाणे विहिंसति / ' 26. से बेमि–संति पाणा उदयणिस्सिया जीवा अणेगा। इहं च खलु भो अणगाराणं उदय-जीवा वियाहिया। सत्थं चेत्थ अणुवोयि पास / पुढो सत्थं पवेदितं / अदुवा अदिण्णादाणं / 23. तू देख ! सच्चे साधक हिंसा (अपकाय की) करने में लज्जा अनुभव करते हैं। और उनको भी देख, जो अपने आपको 'अनगार' घोषित करते हैं, वे विविध प्रकार के शस्त्रों (उपकरणों) द्वारा जल सम्बन्धी प्रारंभ-समारंभ करते हुए मल-काय के जीवों को हिंसा करते हैं। और साथ ही तदाश्रित अन्य अनेक जीवों की भी हिंसा करते हैं। 24. इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा अर्थात् विवेक का निरूपण किया है। -अपने इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म-मरण और मोक्ष के लिए, दुःखों का प्रतीकार करने के लिए (इन कारणों से) कोई स्वयं अप्काय की हिंसा करता है, दूसरों से भी अपकाय की हिंसा करवाता है और अपकाय की हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है / यह हिंसा, उसके अहित के लिए होती है तथा प्रबोधि का कारण बनती है / / 1. सूत्र 25 के बाद कुछ प्रतियों में 'अप्पेगे अंधमन्भे' पृथ्वीकाय का सूत्र 15 पूर्ण रुप से उद्धृत मिलता है / यह सूत्र अग्निकाय, वनस्पतिकाय, अस काय एवं वायुकाय के प्रकरण में भी मिलता है। हमारी आदर्श प्रति में यह पाठ नहीं है। -सम्पादक 2. वृत्ति में 'पुढोऽपासं पवेदितं'-पाठान्तर है, जिसका आशय है शस्त्र-परिणामित उदक ग्रहण करना आपाश--प्रबन्धन (अनुमत) है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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