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________________ 182 आचारांग सूत्र----द्वितीय श्रतस्कन्ध णावाए उत्तिगं हत्थेण वा पाएण या बाहुणा वा ऊरुणा वा उदरेण वा सोसेण वा काएण वा णावास्सिचणएण वा चेलेण वा मट्टियाए वा कुसपत्तएण वा कुविदेण वा पिहेहि / णो से तं परिणं परिजाणेज्जा ?] / 482. से भिक्खू वा 2 णावाए उत्तिगेण उदयं आसवमाणं पेहाए, उवरूवरि णावं कज्जलावेमाणं पेहाए, णो परं उवसंकमित्तु एवं बूया---आउसंतो गाहावति ! एतं ते णावाए उदयं उत्तिगेण आसवति, उवरूवरि वा णावा कज्जलावेति / एतप्पगारं मणं वा वायं वा णो पुरतो कटु विहरेज्जा / अप्पुस्सुए' अबहिलेस्से एगत्तिगएणं अप्पाणं वियोसेज्ज समाधोए / ततो संजतामेव णावासंतारिमे उदए आहारियं रीएज्जा। 474. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु या साध्वी यह जाने कि मार्ग में नौका द्वारा पार कर सकने योग्य जल (जलमार्ग) है; (तो वह नौका द्वारा उस जलमार्ग को पार कर सकता है।) परन्तु यदि वह यह जाने कि वह नौका असंयत-गृहस्थ साधु के निमित्त मूल्य देकर (किराये से) खरीद रहा है, या उधार ले रहा है, या अपनी नौका से उसकी नौका की अदलाबदली कर रहा है, या नाविक नौका को स्थल से जल में लाता है, अथवा जल से उसे स्थल में खींच ले जाता है, पानी से भरी हुई नौका से पानी उलीचकर खाली करता है, अथवा कीचड़ में फंसी हुई नौका को बाहर निकालकर साधु के लिए तैयार करके साधु को उस पर चढ़ने की प्रार्थना करता है तो इस प्रकार की नौका (पर साधु न चढे / ) चाहे वह ऊर्ध्वगामिनी हो, अधोगामिनी हो या तिर्यग्गामिनी, जो उत्कृष्ट एक योजनप्रमाण क्षेत्र में चलती है, या अर्द्ध योजनप्रमाण क्षेत्र में चलती है, एक बार या बहुत वार गमन करने के लिए उस नौका पर साधु सवार न हो / अर्थात्-ऐसी नौका में बैठकर नदी (जलमार्ग) को पार न करे। 475. [कारणवश नौका में बैठना पड़े तो] साधु या साध्वी सर्वप्रथम तिर्यग्गामिनी नौका को जान-देख ले। यह जान कर वह गृहस्थ की आज्ञा को लेकर एकान्त में चला जाए। वहाँ जाकर भण्डोपकरण का प्रतिलेखन करे. तत्पश्चात सभी उपकरणों को इकट्ठे करके बांध ले। फिर सिर से लेकर पैर तक शरीर का प्रमार्जन करे / तदनन्तर आगारसहित आहार का अप्पुस्सुए आदि पदों का अर्थ चणिकार के अनुसार--"अप्पृस्सओम जीविय-मरणे हरिसं ण गच्छति / अवहिलेस्से-कहादि तिण्णि बाहिरा, अहवा उवमरणे अज्झोववष्णो बहिलेसो, ण बहिलेसो अबहिलेस्सो / एमतिगतो- 'एगो मे सासभो अप्पा' अहवा उबगरणं मुतित्ता एगभूतो। वोसज्ज== उवगरण सरीरादि / समाहाणं-समाधी। संजतगं, ण चडफडतो उदगसंघट करेति एवं अधारिया जहा रिया इत्यर्थः।" अप्पुस्सुओ=जिसे जीने-मरने का हर्ष-शोक नहीं है। अबहिलेस्से =कृष्णादि तीन लेश्याएं बाह्य हैं। अथवा उपकरण में आसक्त बाह्यलेश्या वाला है। एगत्तिगतो- मेरा शाश्वत आत्मा अकेला है, इस भावना से ओत-प्रोत अथवा उपकरणों का त्याग करके एकीभूत / वोसज्जम्-उपकरण, शरीर आदि का व्युत्सर्ग करके, समाधी-समाधान, चित्त की स्वस्थता। यानी यथार्थ-आर्योपदिष्ट रीति के अनुसार। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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