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________________ 100 आचारांग सूत्र-द्वितीय ध तस्कन्ध तब तक वह युवराज कहलाता है / दोरज्जाणि =जहां एक राज्य के अभिलाषी दो दाबेदार हैं, दोनों कटिबद्ध होकर लड़ते हैं, वह द्विराज्य कहलाता है, वेरज्जाणि =शत्रु राजा ने आकर जिस राज्य को हड़प लिया है, वह वैर-राज्य है / विरुवरज्जाणि =जहां का राजा धर्म और साधुओं आदि के प्रति विरोधी है, उसका राज्य विरुद्ध-राज्य कहलाता है, अथवा जिस राज्य में साधु म्रान्ति से विरुद्ध (विपरीत) गमन कर रहा है, वह भी विरुद्ध राज्य है।' विहं कई दिनों में पार हो सके, ऐसा अटवीमार्ग। नौकारोहण-विधि 474. से भिक्खू वा 2 गामाणुगार्म दूइज्जेज्जा, अंतरा से णावासंतारिमे उदए सिया, से ज्जं पुण गावं जाणेज्जा-असंजते भिक्खुपडियाए किणेज्ज वा, पामिच्चेज्ज वा, णावाए वा णावपरिणाम कट्ट, थलातो वा णावं जलंसि ओगाहेज्जा, जलातो वा णावं थलंसि उक्कसेज्जा पुण्णं वा गावं उस्सिचेज्जा, सणं वा णावं उप्पोलावेज्जा, तहप्पगारं णावं उड्ढगाििण वा अहेगामिणि वा तिरियगाििण वा परं जोयणमेराए अद्धजोयणमेराए वा अप्पतरे वा भुज्जतरे वा णो दुरुहेज्जा गमणाए। 1. (क) "अणरायं--राया मतो, जुगरायं---जुगराया अत्यि कता वा दावं अभिसिचति / दोरज्ज---दो दाइता भंडंति, वैरज्ज---जत्थ वेरं अण्णण रज्जैण राएण वा सद्धि विरुद्ध गमण यस्मिन राज्ये साधुस्स तं विरुद्धरज्ज।" | -आचारांग चूणि (ख) 'मए रायाणे जाव मूलराया जुवराया य दो वि एए अणभिसित्ता ताब अणरायं भवति / " / -निशीथ चुणि उ०१२ में अन्य भी इसी प्रकार के अर्थ मिलते हैं। (ग) वृहत्कल्प भाष्य 1.2764-65 में वैराज्य-प्रकरण विस्तारपूर्वक बताया गया है। (घ) उत्तराध्ययन 2, टीका पत्र 47 में बताया है--एकल विहारी श्रावती के राजकुमार भद्र को वैराज्य में गुप्तचर समझकर पकड़ लिया था। उसे अनार्यों से बंधवाकर शरीर में तीक्ष्ण दो का प्रवेश कर असह्य वेदना पहुँचाई। 2. 'पाइअ सहमहण्णवों' पृ. ८०८-'विह' शब्द देखें। 3. "किणेज्ज वा" आदि पदों का अर्थ चूर्णिकार ने इस प्रकार किया है-किणेज्ज- केति (खरीदता है), सड्ढो=श्रद्धी (श्रद्धालु या श्राद्ध = श्रावक) 'दुक्खं दिणे दिणे माग्गिज्जति णावा' = कठिनता से दिनदिन के लिए नाव मांगता है। "पामिच्चं'=उच्छिदति, उधार लेता है। परिणामो णावं परियति, इमा साहण जोग्ग त्ति बडिडया खुड्डिया वा सुदरीति कट'-नौका की अदला-बदली करता है, यह साधु के लिए योग्य है, बढ़िया है, छोटी-सी सुन्दर नौका है, यह सोचकर बदल लेता है / पुण्णा=जल से परिपूर्ण -(भरितिया), सण्णा खुत्तिया चिक्खल्ले कीचड़ में फंसी हुयी :-उड्ढगामिणी व ति अणुसोय ऊर्ध्वगामिनी अनुस्रोतगामिनी, तिरिच्छे तिरियगामिणी-तिरछी चलने वाली। अढजोयणा दूरतरं वा ण गग्छिज्जा अस्पतरो अवजोयण आरेण, भज्जयरो जोयणा परेणं अर्ध योजन से दूर नहीं जाने वाली नौका अप्पतरा (अल्पतरा) है, जो केवल इस पार से उस पार तक जाती है, भुज्जतर-वह हैं, जो योजन से पार जाती है / अहवा एक्कसि अप्पतरो, बहुसो भुज्जयरो-अथवा एक बार जो उपयोग में ली जाती है, वह अल्पतरा है, जो बारम्बार उपयोग में ली जाती है, वह भूयस्तरा है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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