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________________ ५३८ ] प्रज्ञापनासूत्र [१५८४-१] इस प्रकार समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर (शेष दण्डकों के जीवों के प्रत्येक के) तीन-तीन भंग सर्वत्र कहने चाहिए तथा (मृषावाद से लेकर) मिथ्यादर्शनशल्य तक (के अध्यवसायों) से ( होने वाले कर्मबन्ध का भी कथन करना चाहिए ।) [२] एवं एगत्त- पोहत्तिया छत्तीसं दंडगा होंति । [१५८४-२] इस प्रकार एकत्व और पृथक्त्व को लेकर छत्तीस दण्डक होते हैं । विवेचन - प्राणातिपातादि से होने वाले कर्मबन्ध की प्ररूपणा प्रस्तुत चार सूत्रों ( १५८१ से १५८४ तक) में प्राणातिपादि क्रियाओं के कारणभूत प्राणातिपातादि के अध्यवसाय से होने वाले कर्मप्रकृतिबन्ध की प्ररूपणा की गई है। सप्तविध बन्ध और अष्टविध बन्ध कब और क्यों ? एक जीव सप्तविधकर्मबन्ध करता है या अष्टविध कर्मबन्ध करता है। इसका कारण यह है कि जब आयुष्यकर्म-बन्ध नहीं होता तब सात कर्मप्रकृतियों का और आयुष्यकर्मबन्धकाल में आठ कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है । यह एकत्व की दृष्टि से विचार किया गया है। पृथक्त्व की दृष्टि से विचार करने पर सामान्य बहुत-से जीव या सप्तविधबन्धक पाए जाते हैं या अष्टविधबन्ध। ये दोनों जगह सदैव अधिक संख्या में मिलते हैं। नैरयिकसूत्र में सप्तविध बन्धक हैं ही; क्योंकि हिंसादि परिणामों से युक्त नारक सदैव बहुत संख्या में उपलब्ध होते हैं। इसलिए उनके सप्तविधबन्धकत्व में कोई सन्देह नहीं है। जब एक भी आयुष्यबन्धक नहीं होता, तब सभी सप्तविधबन्धक होते हैं। जब एक आयुष्यबन्धक होता है, तब दोनों में उभयगत बहुवचन का रूप होता हैं। जब अष्टविधबन्धक बहुत-से मिल हैं, तब दोनों में उभयगत बहुवचन का रूप होता है। अर्थात् अनेक सप्तविधबन्धक और अनेक अष्टविधबन्धक । इस प्रकार तीन भंगों से असुरकुमार आदि दस प्रकार के भवनपति तक का कथन करना चाहिए। पृथ्वीकायिकादि पांच स्थावर प्राय: हिंसा के परिणामों में परिणत होते हैं, इसलिए सदैव अनेक पाए जाते हैं तथा वे सप्तविधबन्धक या अष्टविधबन्धक होते हैं। शेष द्वि- त्रि- चतुरिन्द्रिय, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय, मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिकों का कथन भंगत्रिक के साथ नैरयिकों की तरह करना चाहिए ।' - एगत्तपोहत्तिया छत्तीस दंडगा० - प्राणातिपात से मिथ्यादर्शनशल्य तक १८ पापस्थानकों के एकत्व पृथक् के भेद से प्रत्येक के दो-दो दण्डक होने से १८ ही पापस्थानकों के कुल ३६ दण्डक होते हैं। जीवादि के कर्मबन्ध को लेकर क्रियाप्ररूपणा १. २. १५८५. [ १ ] जीवे णं भंते ! णाणावरणिज्जं कम्मं बंधमाणे कतिकिरिए ? गोमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए। प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४४० वही, पत्र ४४०
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
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