SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 553
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५३२] [प्रज्ञापनासूत्र ऐसा कहा जाता है कि जीव सक्रिय भी हैं और अक्रिय भी हैं। - विवेचन - जीवों की सक्रियता-अक्रियता का निर्धारणता - प्रस्तुत सूत्र (१५७३) में जीवों को सक्रिय और अक्रिय दोनों प्रकार का बताकर उनका विश्लेषणपूर्वक निर्धारण किया गया है। पारिभाषिक शब्दों के अर्थ - सक्रिय- पूर्वोक्त क्रियाओं से युक्त, या क्रियाओं में रत। अक्रियसमस्त क्रियाओं से रहित। संसारसमापनक - चतुर्गति भ्रमणरूप संसार को प्राप्त- युक्त। असंसारसमापनक - उससे विपरीतमुक्त। सिद्धों की अक्रियता- सिद्ध देह एवं मनोवृत्ति आदि से रहित होने से पूर्वोक्त क्रिया से रहित हैं, इसलिए वे अक्रिय हैं। शैलेशीप्रतिपन्नक- अयोगी-अवस्था को प्राप्त । शैलेशीप्रतिपन्नकों के सूक्ष्म-बादर काय, वचन और मन के योगों का निरोध हो जाता है, इस कारण वे अक्रिय हैं। अशैलेशीप्रतिपन्नक-शैलेशी-अवस्था से रहित समस्त संसारी प्राणीगण, जिनके मन, वचन, काया के योगों का निरोध नहीं हुआ है। वे सक्रिय हैं।' जीवों की प्राणातिपातादिक्रिया तथा विषय की प्ररूपणा १५७४. अत्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कजति ? . हंता गोयमा ! अस्थि । कम्हि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कजति ? गोयमा ! छसु जीवणिकाएसु। [१५७४ प्र.] भगवन् ! क्या जीवों को प्राणातिपात (के अध्यवासय) से प्राणातिपातक्रिया लगती है ? [उ.] हाँ, गौतम ! (प्राणतिपातक्रिया संलग्न) होती है। [प्र.] भगवन् ! किस (विषय) में जीवों को प्राणातिपात (के अध्यवसाय) से प्राणातिपातक्रिया लगती [उ.] गौतम ! छह जीवनिकायों (के विषय) (में लगती है।) १५७५.[१] अस्थि णं भंते ! णेरइयाणं पाणाइवाएणं किरिया कज्जति ? गोयमा ! एवं चेव। [१५७५-१ प्र.] भगवन् ! क्या नारकों को प्राणातिपात (के अध्यवसाय) से प्राणातिपात क्रिया लगती हैं? [उ.] (हाँ) गौतम ! ऐसा (पूर्ववत्) ही है। १. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र ४६७
SR No.003457
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages545
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy