________________
है। इसके विचार गूढ होते हैं, वह विचारों को छुपाए रखता है। लोभ आभिषावर्त है, लोभी का मानस किसी एक केन्द्र को मानकर उसके चारों ओर घूमता है, जैसे चील आदि पक्षी मांस के चारों ओर घूमते हैं, उसके प्राप्त नहीं होने तक उनके मन में शान्ति नहीं होती। इसी प्रकार कषाय चक्राकार है जो चेतना को घुमाती रहती है।
प्रस्तुत पद में क्रोध-मान-माया-लोभ ये चारों कषाय चौबीस दण्डकों में बताये गये हैं। क्षेत्र, वस्तु, शरीर और उपधि को लेकर सम्पूर्ण सांसारिक जीवों में कषाय उत्पन्न होता है। कितनी बार जीव को कषाय का निमित्त मिलता है और कितनी बार बिना निमित्त के भी कषाय उत्पन्न हो जाता है।
चारों ही कषायों के तरतमता की दृष्टि से अनन्त स्तर होते हैं, तथापि आत्मविकास के घात की दृष्टि से उनमें से प्रत्येक के चार-चार स्तर हैं-अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन। अनन्तानुबंधी कषाय के उदयकाल में सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता। अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदयकाल में अणुव्रत की योग्यता, प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदयकाल में महाव्रत की योग्यता प्राप्त नहीं होती और संज्वलन कषाय के उदयकाल में वीतरागता उत्पन्न नहीं होती। ये चारों प्रकार के कषाय उत्तरोत्तर, मंदमंदतर होते हैं, साथ ही आभोगनिर्वर्तित, और अनाभोगनिर्वर्तित, उपशान्त और अनुपशान्त, इस प्रकार के भेद भी किए गए हैं। आभोगनिर्वर्तित कषाय कारण उपस्थित होने पर होता है तथा जो बिना कारण होता है वह अनाभोगनिवर्तित कहलाता है।
___ कर्मबंधन का कारण मुख्य रूप से कषाय है। तीनों कालों में आठों कर्मप्रकृतियों के चयन के स्थान और प्रकार, २४ दंडक के जीवों में कषाय को ही माना गया है। साथ ही उपचय, बंध, उदीरणा, वेदना और निर्जरा में चारों कषाय ही मुख्य रूप से कारण बताये हैं। इन्द्रिय : एक चिंतन
__पन्द्रहवें पद में इन्द्रियों के संबंध में दो उद्देशकों में चिंतन किया गया है। प्राणी और अप्राणी में भेद रेखा खींचने वाला चिह्न इन्द्रिय है। आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में इन्द्रिय शब्द की परिभाषा करते हुए लिखा है—परम ऐश्वर्य को प्राप्त करने वाले आत्मा को इन्द्र और उस इन्द्र के लिंग या चिह्न को इन्द्रिय कहते हैं अथवा जो जीव को अर्थ की उपलब्धि में निमित्त होता है वह इन्द्रिय है अथवा जो इन्द्रियातीत आत्मा के सद्भाव की सिद्धि का हेतु है वह इन्द्रिय है। अथवा इन्द्र अर्थात् नामकर्म के द्वारा निर्मित स्पर्शन आदि को इन्द्रिय कहा है।१४० तत्त्वार्थभाष्य, १४१ तत्त्वार्थवार्तिक, १४२ आवश्यकनियुक्ति ४३ आदि अनेक ग्रन्थों में इससे मिलती-जुलती परिभाषायें हैं। तात्पर्य यह है कि आत्मा की स्वाभाविक शक्ति पर कर्म का आवरण होने के कारण सीधा आत्मा १४०. इन्दतीति इन्द्रः आत्मा, तस्य ज्ञस्वभावस्य तदावरणक्षयोपशमे सति स्वयमर्थान् गृहीतुमसमर्थस्य तदर्थोपलब्धिनिमित्तं लिङ्गं
तदिन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रियमित्युच्यते। अथवा लीनमर्थ गमयतीति लिङ्गम्। आत्मन:सूक्ष्मस्यास्तित्वाधिगम लिङ्गमिन्द्रियम्।
अथवा इन्द्र इति नामकमौच्यते, तेन सृष्टमिन्द्रियमिति । सर्वार्थसिद्धि१-१४ १४१. तत्त्वार्थभाष्य २-१५ १४२. तत्त्वार्थवार्तिक २।१५। १-२ १४३. आवश्यकनियुक्ति, हरिभद्रीया वृत्ति ९१८, पृष्ठ ३९८
[६५ ]