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________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद ] [४७७ विशेषण युक्त विशेष नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवों के उपपातरहितकाल एवं उद्वर्तनाविरहकाल की प्ररूपणा की गई है। __पृथ्वीकायिकादि प्रतिसमय उपपादविरहरहित - पृथ्वीकायिक आदि जीव प्रति समय उत्पन्न होते रहते हैं। कोई एक भी समय ऐसा नहीं, जब पृथ्वीकायिकों का उपपात न होता हो। इसलिए उन्हें उपपातविरह से रहित कहा गया है। ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में उद्वर्तना नहीं - ज्योतिष्क और वैमानिक इन दोनों जातियों के देवों के लिए 'च्यवन' शब्द का प्रयोग करना चाहिए। च्यवन का अर्थ है नीचे आना। ज्योतिष्क और वैमानिक इस पृथ्वी से ऊपर हैं, अतएव देव मर कर ऊपर से नीचे आते हैं, नीचे से ऊपर नहीं जाते। तीसरा सान्तरद्वारः नैरयिकों से सिद्धों तक की उत्पत्ति और उद्वर्तना का सान्तर निरन्तरनिरूपण ६०९. नेरइया णं भंते! किं संतरं उव्वजंति ? निरंतरं उववजंति ? गोयमा! संतरं पि उववजंति, निरंतरं पि उववजंति। [६०९ प्र.] भगवन्! नैरयिक सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? [६०९ उ.] गौतम (वे) सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं। ६१०. तिरिक्खजोणिया णं भंते! किं संतरं उववजंति ? निरंतरं उववजंति ? गोयमा! संतरं पि उववजंति, निरंतरं पि उववजंति। [६१० प्र.] भगवन् तिर्यञ्चयोनिक जीव सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? [६१० उ.] गौतम! (वे) सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं। ६११. गणुस्सा णं भंते! किं संतरं उववजंति ? निरंतरं उववजंति ? गोयमा! संतरं पि उववजंति, निरंतरं पि उववजंति। [६११ प्र.] भगवन् ! मनुष्य सान्तर उत्पन्न होते हैं अथवा निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? [६११ उ.] गौतम! (वे) सान्तर की उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं। ६१२. देवा णं भंते! किं संतरं उववजंति ? निरंतरं उववज्जति ? गोयमा! संतरं पि उववजंति, निरंतरं पि उववजंति। [६१२ प्र.] भगवन् ! देव सान्तर उत्पन्न होते हैं अथवा निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? [६१२ उ.] गौतम! (वे) सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं। १. (क) प्राज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २०७ (ख) देखिये, संग्रहणीगाथा, मलय. वृत्ति, पत्रांक २०७ (ग) प्रज्ञापना. प्र. बो. टीका., भा. 2, पृ ९५८ २. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक २०७ (ख) प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी टीका, भा. २, पृ. ९७०
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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