SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 494
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पांचवा विशेषपद (पर्यायपद ) ] [ ३९३ मणपज्जवणापज्जवेहि य छट्ठाणवडिते, केवलणाणपज्जवेहिं तुल्ले, तिहिं अण्णाणेहिं तिहिं दंसहिं छाणवडते, केवलदंसणपज्जवेहिं तुल्ले । [ ४५२ प्र.] भगवन्! मनुष्यों के कितने पर्याय कहे गए है ? [ ४५२ उ.] गौतम! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'मनुष्यों के अनन्त पर्याय है?" [उ.] गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से एक मनुष्य, दूसरे मनुष्य से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से भी तुल्य है, (किन्तु) अवगाहना की दृष्टि से चतुः स्थानपतित ( हीनाधिक) है, स्थिति की दृष्टि से भी चतु:स्थानपतित (हीनाधिक) है, तथा वर्ण गन्ध, रस, स्पर्श, आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान एवं मनः पर्यवज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा षट्स्थानपतित ( हीनाधिक) है, तथा केवलज्ञान के पर्यायों की दृष्टि से तुल्य है, तीन अज्ञान तथा तीन दर्शन ( के पर्यायों) की दृष्टि से षट्स्थानपतित है, और केवलदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है । विवेचन - मनुष्यों के अनन्त पर्यायों की सयुक्तिक प्ररूपणा — प्रस्तुत सूत्र (४५२) में अवगाहना और स्थिति की दृष्टि से चतु:स्थानपतित तथा वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आभिनिबोधिक आदि चार ज्ञानों, तीन अज्ञानों और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित हीनाधिकता बता कर तथा द्रव्य, प्रदेश तथा केवलज्ञान-केवलदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से परस्पर तुल्यता बता कर मनुष्यों अनन्त पर्याय सिद्ध किए गए हैं। चार ज्ञान, तीन अज्ञान, और तीन दर्शनों की हीनाधिकता • पांच ज्ञानों में से चार ज्ञान, तीन अज्ञान और तीन दर्शन क्षायोपशमिक हैं । वे ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं, किन्तु सब मनुष्यों का क्षयोपशम समान नहीं होता । क्षयोपशम में तरतमता को लेकर अनन्त भेद होते हैं। अतएव इनके पर्याय षट्स्थानपतित हीनाधिक कहे गए हैं, किन्तु केवलज्ञान और केवलदर्शन क्षायिक हैं। वे ज्ञानावरण और दर्शनावरण के सर्वथा क्षीण होने पर ही उत्पन्न होते हैं, अतएव उनमें किसी प्रकार की न्यूनाधिकता नहीं होती। जैसा एक मनुष्य का केवलज्ञान या केवलदर्शन होता है, वैसा ही सभी का होता है, इसीलिए केवलज्ञान और केवलदर्शन के पर्याय तुल्य कहे हैं । २ -- स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित कैसे - - पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों की स्थिति अधिक से अधिक तीन पल्योपम की होती है । पल्योपम असंख्यात हजार वर्षों का होता है । अतः उसमें असंख्यातगुणी वृद्धि और हानि सम्भव होने से उसे चतुः स्थानपतित कहा गया है। वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के अनन्त पर्यायों की प्ररूपणा ४५३. वाणमंतरा ओगाहणट्टयाए ठितीए य चउट्ठाणवडिया, वण्णादीहिं छट्टाणवडिता । १. पणवणासुत्त (मूलपाठ - टिप्पण युक्त), पृ. १३९ - १४० २. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्रांक १८६. (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा-२, पृ. ६१२-६१३
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy