SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 414
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद] [३१३ उनकी अपेक्षा सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्तक, अप्कायिक-अपर्याप्तक, सूक्ष्म वायुकायिक-अपर्याप्तक उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं, उनसे सूक्ष्म तेजस्कायिक-पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, यह पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार समझ लेना चाहिए तथा अपर्याप्तक सूक्ष्म जीवों की अपेक्षा पर्याप्तक सूक्ष्म स्वभावतः अधिक होते हैं। प्रज्ञापना की संग्रहणी में कहा गया है – बादर जीवों में अपर्याप्त अधिक होते हैं, तथा सूक्ष्म जीवों में समुच्चयरूप से पर्याप्तक अधिक होते हैं। (६९ से ७३ तक) उनकी अपेक्षा सूक्ष्म पृथ्वीकायिक-पर्याप्तक, सूक्ष्म अप्कायिक-पर्याप्तक, सूक्ष्म वायुकायिक-पर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमशः विशेषाधिक है। उनको अपेक्षा सूक्ष्म निगोद-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं तथा उनसे सूक्ष्म निगोद पर्याप्तक-संख्यातगुणे अधिक हैं। यद्यपि अपर्याप्त तेजस्कायिक से लेकर पर्याप्त सूक्ष्म निगोद पर्यन्त जीव सामान्यरूप से असंख्यात लोकाकाशों की प्रदेशराशि प्रमाण (तुल्य) अन्यत्र कहे गए हैं, तथापि लोक का असंख्येमत्व भी असंख्यात भेदों से युक्त होने के कारण यह अल्पबहुत संगत ही है। (७४) उनकी अपेक्षा अभव्य अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वे जघन्य युक्त-अनन्तक प्रमाण हैं। (७५) उनसे भ्रष्टसम्यग्दृष्टि अनन्तगुणे हैं, (७६) उनसे सिद्ध अनन्तगुणे हैं, (७७) उनसे बादर वनस्पतिकायिकपर्याप्तक अनन्तगुणे हैं। (७८) उनकी अपेक्षा सामान्यत: बादर पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें बादर पर्याप्तक-पृथ्वीकायिकादि का भी समावेश हो जाता है। (७९) उनसे बादर वनस्पति कायिक-अपर्याप्तक असंख्येगुणे हैं, क्योंकि एक एक बादर निगोद पर्याप्त के आश्रय से असंख्यात-असख्यांत बादर निगोद-अपर्याप्त रहते हैं। (८०) उनकी अपेक्षा बादर अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं. क्योंकि इनमें बादर अपर्याप्त पथ्वीकायिक आदि का भी समावेश हो जाता है। (८१) उनसे सामान्यत: बादर विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें पर्याप्त-अपर्याप्तक दोनों का समावेश हो जाता है। (८२) उनकी अपेक्षा सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं। (८३) उनसे सामान्यतः सूक्ष्म अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें सूक्ष्म अपर्याप्तक पृथ्वीकायादि का भी समावेश हो जाता है। (८४) उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, क्योंकि पर्याप्तक सूक्ष्म, अपर्याप्तक सूक्ष्म में स्वभावतः सदैव संख्यातगुणे पाये जाते है। (८५) उनकी अपेक्षा सामान्यरूप से सूक्ष्म पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनमें सूक्ष्म पृथ्वीकायिक आदि भी सम्मिलित हैं। (८६) उनसे भी पर्याप्त-अपर्याप्त विशेषणरहित (सामान्य) सूक्ष्म विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनमें अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक तक के जीव सम्मिलित हैं। (८९) उनकी अपेक्षा भव्य जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि जघन्य युक्त अनन्तक प्रमाण अभव्यों को छोड़कर शेष सभी भव्य हैं। (८८) उनकी अपेक्षा निगोद जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि भव्य और अभव्य अतिप्रचुरता से सूक्ष्म और बादर निगोद जीवराशि में ही पाए जाते हैं अन्यत्र नहीं। अन्य सभी मिलकर असंख्यात लोकाकाशप्रदेशों की राशि-प्रमाण ही होते हैं। (८९) उनकी अपेक्षा वनस्पतिजीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि सामान्य वनस्पतिकायिकों में प्रत्येक शरीर वनस्पतिकायिक जीव भी सम्मिलित हैं। (९०) वनस्पति जीवों की अपेक्षा एकेन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें सूक्ष्म एवं बादर पृथ्वीकायिक आदि का भी समावेश है। (९१) एकेन्द्रियों की अपेक्षा तिर्यञ्चजीव
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy