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________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद] [२९३ उनकी अपेक्षा ऊर्ध्वलोकतिर्यग्लोक नामक दो प्रतरों में असंख्यातगुणे होते हैं, क्योंकि तिर्यग्लोकस्थभवनपतिदेव वैक्रियसमुद्घात करते हैं, तब वे ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोक का स्पर्श करते हैं, तथा तिर्यग्लोकस्थ जो भवनपति मारणान्तिकसमुद्घात करके ऊर्ध्वलोक में सौधर्मादि देवलोकों में बादरपर्याप्त-पृथ्वीकायिक, बादरपर्याप्त-अप्कायिक एवं बादरपर्याप्त-वनस्पतिकायिक रूप से अथवा शुभमणि-प्रकारों में उत्पन्न होने वाले होते हैं, तब वे अपने भव की ही आयु का वेदन करते हैं, पारभविक पृथ्वीकायिकादि की आयु का नहीं; तब वे भवनपति ही कहलाते है उस समय वे ऊर्ध्वलोकतिर्यग्लोक का स्पर्श करते हैं। इस प्रकार के वे भवनपतिदेव ऊर्ध्वलोक में गमनागमन करने से और दोनों प्रतरों के समीपवर्ती उनका क्रीड़ास्थान होने से वे पूर्वोक्त दोनों प्रतरों को स्पर्श करते हैं, इसलिए ये पूर्वोक्त देवों से असंख्यातगुणे हैं। इनकी अपेक्षा त्रिलोकस्पर्शी भवनपति देव संख्यातगुणे होते हैं। ऊर्ध्वलोक में रहे हुए जो तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय भवनपति रूप से उत्पन्न होने वाले होते हैं, वे तथा स्वस्थान में तथाविध प्रयत्न विशेष से वैक्रिय समुद्घात या मारणान्तिक समुद्घात करते हैं तब वे त्रैलोक्यस्पर्श करते है। वे संख्यातगुणे इसलिए हैं कि अन्य स्थान में समुद्घात करने वालों की अपेक्षा स्वस्थान में समुद्घात करने वाले संख्यातगुणे होते हैं। अधोलोक-तिर्यग्लोक संज्ञक प्रतरद्वय में इनकी अपेक्षा भी वे असंख्यातगुणे होते हैं। तिर्यग्लोक इनके स्वस्थान से निकटवर्ती होने से गमनागमन होने के कारण तथा स्वस्थान में स्थित रहते हुए भी क्रोधादि कषायसमुद्घातवश गमन होने से बहुत-से भवनपतिदेव पूर्वोक्त दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। उनकी अपेक्षा तिर्यग्लोक में वे असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि तीर्थंकर समवसरणादि में वन्दननिमित्त, रमणीय द्वीपों में क्रीडा के निमित्त वे तिर्यग्लोक में आते हैं. और आते हैं तो चिरकाल तक भी रहते हैं। उनकी अपेक्षा भी अधोलोक में असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि अधोलोक तो भवनवासियों का स्वस्थान है। भवनवासीदेवों की तरह ही भवनवासीदेवियों का अल्पबहुत्व समझ लेना चाहिए। व्यन्तरदेव-देवियों का पृथक्-पृथक् अल्पबहुत्व क्षेत्रानुसार चिन्तन करने पर व्यन्तर देव सबसे कम ऊर्ध्वलोक में हैं. पाण्डकवन आदि में कछ ही व्यन्तरदेव पाये जाते हैं। उनकी अपेक्षा ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक रूप दो प्रतरों में असंख्यातगुणे हैं कुछ व्यन्तरों के स्वस्थान के अन्तर्गत होने से तथा कई व्यन्तरों के स्वस्थान के निकट होने से तथा बहुत-से व्यन्तरों के मेरु आदि पर गमनागमन होने से उनके पूर्वोक्त दोनों प्रतरों का स्पर्श होता है। इन सब की सामूहिक रूप से विचारणा करने पर वे अत्यधिक हो जाते हैं। उनकी अपेक्षा त्रिलोकवर्ती व्यन्तर संख्यातगुणे हैं, क्योंकि तथाविध प्रयत्नविशेष से वैक्रिय समुद्घात करने पर वे आत्मप्रदेशों से तीनों लोकों को स्पर्श करते हैं, और ऐसे व्यन्तरदेव पूर्वोक्त देवों से अत्यधिक हैं, इसलिए संख्यातगुणे हैं। उनकी अपेक्षा अधोलोक तियग्लोक-संज्ञक प्रतरद्वय में असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि ये दोनों प्रतर बहुत-से व्यन्तरों के स्वस्थान हैं, इसलिए इनका स्पर्श करने वाले व्यन्तर बहुत अधिक होने से असंख्यातगुणे हैं। इनकी अपेक्षा अधोलोक में वे संख्यातगुणे हैं, क्योंकि अधोलौकिक ग्रामों में उनका स्वस्थान है, तथा अधोलोक में बहुत से व्यन्तरों का क्रीडानिमित्त
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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