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________________ [ प्रज्ञापना सूत्र विवेचन—–पन्द्रहवाँ भाषकद्वार : भाषा की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहुत्व — प्रस्तुत सूत्र में भाषक और अभाषक जीवों के अल्पबहुत्व की चर्चा की गई है। भाषक और अभाषक की व्याख्या - जो जीव भाषालब्धि-सम्पन्न हैं, वे भाषक और जो भाषालब्धिविहीन हैं, वे अभाषक कहलाते हैं । २६६ ] भाषकों की अपेक्षा अभाषक अनन्तगुणे क्यों ? – भाषक जीव द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव हैं, जबकि अभाषकों में एकेन्द्रिय जीव हैं, जिनमें अकेले वनस्पतिकायिक जीव ही अनन्त हैं, इसलिए भाषकों से अभाषक अनन्तगुणे कहे गए हैं । सोलहवाँ परित्तद्वार : परित्त आदि की दृष्टि से जीवों का अल्पबहुत्व २६५. एतेसि णं भंते! जीवाणं परित्ताणं अपरित्ताणं नोपरित्तनाअपरित्ताण य कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा परित्ता १, नोपरित्त - नोअपरित्ता अनंतगुणा २, अपरित्ता अनंतगुणा ३, । दारं १६ ॥ [ २६५ प्र.] भगवन्! इन परीत, अपरीत और नोपरीत - नोअपरीत जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [ २६५ उ.] गौतम ! १. सबसे थोड़े परीत जीव हैं, २. ( उनसे) नोपरीत - नो अपरीत जीव अनन्तगुणे हैं और ३. ( उनसे भी) अपरीत जीव अनन्तगुणे हैं । - सोलहवाँ (परीत्त) द्वार ॥ १६ ॥ विवेचन - सोलहवाँ परीतद्वार : परीत आदि की दृष्टि से जीवों का अल्पबहुत्व — प्रस्तुत सूत्र (२६५) में परीत, अपरीत और नोपरीत - नोअपरीत जीवों की न्यूनाधिकता का प्रतिपादन किया गया है। परीत आदि की व्याख्या —परीत का सामान्यतया अर्थ होता है— परिमित या सीमित । इस दृष्टि से 'परीत' दो प्रकार के बताए गए हैं—भवपरीत और कायपरीत । भवपरीत उन्हें कहते हैं, जिनका संसार (भवभ्रमण) कुछ कम अपार्द्ध - पुद्गलपरावर्तनमात्र रह गया है । 'कायपरीत' कहते हैं — प्रत्येकशरीरी को। भवपरीत शुक्लपाक्षिक होते हैं और कायपरीत प्रत्येकशरीरी होते हैं । अपरीत उन्हें कहते हैं— जिनका संसार परी—परिमित न हुआ हो, ऐसे जीव कृष्णपाक्षिक होते हैं । परीत आदि की दृष्टि से अल्पबहुत्व - पूर्वोक्त दोनों प्रकार के परीत जीव सबसे थोड़े हैं, क्योंकि समस्त जीवों की अपेक्षा शुक्लपाक्षिक एवं प्रत्येकशरीरी कम हैं। उनकी अपेक्षा नोपरीत-नोअपरीत अर्थात् इन दोनों से अलग सिद्ध भगवन् हैं, जो कि अनन्त हैं, इसलिए अनन्तगुणे हैं और उनसे अपरीत यानी कृष्णपाक्षिक जीव अनन्तगुणे हैं, क्योंकि अकेले वनस्पतिकायिक जीव ही अनन्त हैं । वे सिद्धों से अनन्तगुणे हैं। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक १३९ २. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक १३९
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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