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[प्रज्ञापना सूत्र ७६. से किं तं परिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया ?
परिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-उरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया य भुयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया य।
[७६ प्र.] वे (पूर्वोक्त) परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक किस प्रकार के हैं ?
[७६ उ.] परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं—उरः परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक एवं भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक।
७७. से किं तं उरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया ?
उरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया चउब्विहा पण्णत्ता। तं जहा—अही १ अयगरा २ आसालिया ३ महोरगा ४।
[७७ प्र.] उर:परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक किस प्रकार के हैं ?
[७७ उ.] उर:परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक चार प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं—१. अहि (सर्प), २. अजगर, ३. आसालिक और ४. महोरग।
७८. से किं तं अही? अही दुविहा पण्णत्ता। तं जहा—दव्वीकरा य मउलिणो य । [७८ प्र.] वे अहि किस प्रकार के होते हैं ?
[७८ उ.] अहि दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार—दर्वीकर (फन वाले), और मुकुली (बिना फन वाले)।
७९. से किं तं दव्वीकरा?
दव्वीकरा अणेगविहा पण्णत्ता। तं जहा—आसीविहा दिट्ठीविसा उग्गविसा भोगविसा तयाविसा लालाविसा उस्सासविसा निस्सासविसा कण्हसप्पा सेदसप्पा काओदरा दझपुष्फा कोलाहा मेलिमिंदा, सेसिंदा, जे यावऽण्णे तहप्पगारा। से तं दव्वोकरा।
[ ७९ प्र.] वे दर्वीकर सर्प किस प्रकार के होते हैं ?
[ ७९ उ.] दर्वीकर (फन वाले) सर्प अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार है-आशीविष (दाढ़ों में विष वाले), दृष्टिविष (दृष्टि में विष वाले), उग्रविष (तीव्र विष वाले), भोगविष (फन या शरीर में विष वाले), त्वचाविष (चमड़ी में विष वाले), लालाविष (लार में विष वाले), उच्छ्वासविष (श्वास लेने में विष वाले), निःश्वासविष (श्वास छोड़ने में विष वाले), कृष्णसर्प, श्वेतसर्प, काकोदर, दह्यपुष्प (दर्भपुष्प), कोलाह, मेलिमिन्द और शेषेन्द्र। इसी प्रकार के और भी जितने सर्प हों, वे सब दीकर के अन्तर्गत समझना चाहिए। यह हुई दर्वीकर सर्प की प्ररूपणा।