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________________ २७८ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [९] इसी प्रकार (तेजस्काय से लेकर) यावत् वनस्पतिकायिक के स्पर्श (के विषय में भी कहना चाहिए) विवेचन—प्रस्तुत चार सूत्रों में रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर अधःसप्तमपृथ्वी तक के नैरयिकों के पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के अनिष्ट, अनिष्टतर, अनिष्टतम यावत् मनःप्रतिकूल, प्रतिकूलतर, प्रतिकूलतम स्पर्श के अनुभव का निरूपण किया गया है। इस प्रकार द्वितीय स्पर्शद्वार पूर्ण हुआ। सात पृथ्वियों की परस्पर मोटाई-छोटाई आदि की प्ररूपणा : तृतीय प्रणिधिद्वार १०. इमा णं भंते ! रयणप्पभपुढवी दोच्चं सक्करप्पभं पुढविं पणिहाए सव्वमहंतिया बाहल्लेणं, सव्वखुड्डिया सव्वंतेसु ? एवं जहा जीवाभिगमे बितिए नेरइयउद्देसए। [१० प्र.] भगवन् ! क्या यह (प्रथम) रत्नप्रभापृथ्वी, द्वितीय शर्कराप्रभापृथ्वी की अपेक्षा मोटाई में सबसे मोटी और चारों ओर (चारों दिशाओं में) (लम्बाई-चौड़ाई में) सबसे छोटी है ? [१० उ.] (हाँ, गौतम ! ) इसी प्रकार है। (शेष सब वर्णन) जीवाभिगमसूत्र की तृतीय प्रतिपत्ति के दूसरे नैरयिक उद्देशक में (कहा है, तदनुसार यहाँ भी कहना चाहिए)। विवेचन—प्रस्तुत सूत्र में तीसरे ‘प्रणिधि (अपेक्षा) द्वार' के सन्दर्भ में सातों नरकपृथ्वियों की मोटाई, लम्बाई-चौड़ाई का एक दूसरे से तारतम्य जीवाभिगमसूत्र के अतिदेश-पूर्वक बताया गया है। सात पृथ्वियों के निकटवर्ती एकेन्द्रियों की महाकर्म-अल्पकर्मतादिनिरूपणा : चतुर्थ निरयान्तद्वार ११. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णिरयपरिसामंतेसु जे पुढविकाइया० ? एवं जहा नेरइयउद्देसए जाव अहेसत्तमाए। [११ प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नारकावासों के परिपार्श्व में जो पृथ्वीकायिक (से लेकर यावत् वनस्पतिकायिक जीव हैं, क्या वे महाकर्म, महाक्रिया, महा-आश्रव और महावेदना वाले हैं ?) इत्यादि प्रश्न। [११ उ.] (हाँ, गौतम ! ) हैं, (इत्यादि सब वर्णन जीवाभिगमसूत्र की तृतीय प्रतिपत्ति के दूसरे) नैरयिक उद्देशक के अनुसार (रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर) यावत् अधःसप्तमपृथ्वी (तक कहना चाहिए।) १. जीवाभिगम में सूचित पाठ इस प्रकार है-"हंता, गोयमा ! इमा णं रयणप्पभा पुढवी दोच्चं पुढविं पणिहाय जाव सव्वखुड्डिया सव्वंतेसु। दोच्चा णं भंते ! पुढवी तच्चं पुढविं पणिहाय सव्वमहंतिया बाहल्लेणं० पुच्छा ? हंता, गोयमा ! दोच्चा णं जाव सव्वखुड्डिया सव्वंतेसु। एवं एएणं अभिलावेणं जाव छट्ठिया पुढवी अहेसत्तमं पुढविं पणिहाय जाव सव्वखुड्डिया सव्वंतेसु त्ति।" अवृ०॥ - जीवाजीवाभिगमसूत्रम्, पृ. १२७, आगमोदय.॥
SR No.003444
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 03 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages840
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size16 MB
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