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________________ ७४ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् लोपादेशः (७) लोपो व्योर्वलि।६६।। प०वि०-लोप: ११ व्यो: ६।२ वलि ७१। स०-वश्च यश्च तौ व्यौ, तयो:-व्यो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। अन्वय:-वलि व्योर्लोपः। अर्थ:-वलि परतो वकार-यकारयोर्लोपो भवति। उदा०-(वकार:) दिव्-दिदिवान्, दिदिवासौ, दिदिवांस: । जीरदानुः । आस्रमाणम् । (यकार:) उयी-ऊतम् । क्नूयी-क्नूतम् । गौधेरः । पचेरन् । यजेरन्। आर्यभाषा: अर्थ- (वलि) वल् वर्ण परे होने पर (व्योः) वकार और यकार का (लोप:) लोप होता है। उदा०-(वकार:) दिव्-दिदिवान्। क्रीडा आदि करनेवाला। दिदिवासौ । दो क्रीडा आदि करनेवाले । दिदिवांसः । सब क्रीडा आदि करनेवाले । जीरदानुः । प्राण-धारण करनेवाला। आस्रमाणम् । गति/शोषण करनेवाले को। (यकार) उयी-ऊतम् । बुना हुआ (कपड़ा)। क्नूयी-क्नूतम् । शब्द/गीला किया हुआ। गौधेरः। गोधा का पुत्र (गोहेरा)। पचेरन् । वे सब पकावें। यजेरन् । वे सब यज्ञ करें। सिद्धि-(१) दिदिवान् । दिव्+लिट् । दिव्+क्वसु । दिव्+वस् । दिव्-दिव्+वस् । दि-दि०+वस् । दिदिवस्+सु । दिदिव नुम् स्+स् । दिदिवान्स्+स् । दिदिवान्स्+० । दिदिवान् । दिदिवान्। यहां दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु' (दि०प०) धातु से लिट् प्रत्यय और क्वसुश्च' (३।२।१०७) से लिट् के स्थान में क्वसु' आदेश है। इस सूत्र से वल् वर्ण (वस्) परे होने पर दिव्' के वकार का लोप होता है। उगिदचां सर्वनामस्थानेऽधातो:' (७ /१ (७०) से नुम्' आगम, 'सान्तमहत: संयोगस्य (६ ।४।१०) से नकार की उपधा को दीर्घ, 'हल्डन्याब्भ्यो दीर्घात०' (६।१।६६) से 'सु' का लोप और 'संयोगान्तस्य लोप:' (८।२।२३) से सकार का लोप होता है। ऐसे ही-दिदिवांसौ, दिदिवांसः। (२) जीरदानुः । जीव्+रदानुक् । जी०+रदानु। जीरदानु+सु । जीरदानुः । यहां जीव प्राणधारणे' (भ्वा०प०) धातु से 'जीवेरदानुक्' (दशपादी उ० १ ।१६३) से 'रदानुक्' प्रत्यय है। इस सूत्र से वल् वर्ण (रदानुक्) परे होने पर जीव्' के वकार का लोप होता है।
SR No.003300
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages754
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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