SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 366
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चमाध्यायस्य तृतीय पादः ३४६ उदा०-अवक्षिप्त व्याकरण-व्याकरणक। तू व्याकरणक-व्याकरण के अवक्षिप्त (अधकचरा) ज्ञान से घमण्ड में चूर है। अवक्षिप्त याज्ञिक्य याज्ञिक्यक। तु याज्ञिक्यक-कर्मकाण्ड के अवक्षिप्त (अधकचरा) ज्ञान से घमण्ड में चूर है। सिद्धि-व्याकरणकम् । व्याकरण+सु+कन्। व्याकरण+क। व्याकरण+सु । व्याकरणकम्। यहां अवक्षेपण अर्थ में व्याकरण' शब्द से इस सूत्र से 'कन्' प्रत्यय है। ऐसे ही-याज्ञिक्यकम्। इति प्रागिवीयार्थप्रत्ययप्रकरणम् । इवार्थप्रत्ययप्रकरणम् कन् (१) इवे प्रतिकृतौ।६६। प०वि०-इवे ७१ प्रतिकृतौ ७।१ । अनु०-कन् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-इवे प्रतिकृतौ च प्रातिपदिकात् कन्। अर्थ:-इवार्थे प्रतिकृतौ च विषये वर्तमानात् प्रातिपदिकात् कन् प्रत्ययो भवति । इवार्थ:-सादृश्यम्। उदा०-अश्व इवायमश्वप्रतिकृति:-अश्वक: । उष्ट्रक: । गर्दभकः । आर्यभाषा: अर्थ-(इवे) सदृशता अर्थ में और (प्रतिकृतौ) चित्र अर्थ में विद्यमान प्रातिपदिक से (कन्) कन् प्रत्यय होता है। उदा०-अश्व के समान यह प्रतिकृति रूप अश्व-अश्वक। उष्ट्र के समान यह प्रकृति रूप उष्ट्र-उष्ट्रक। गर्दभ के समान यह प्रतिकृति रूप गर्दभ-गर्दभक। सिद्धि-अश्वकः । अश्व+सु+कन् । अश्व+क। अश्वक+सु। अश्वकः । यहां इव-अर्थ में तथा प्रतिकृति विषय में विद्यमान 'अश्व' शब्द से इस सूत्र से कन्' प्रत्यय है। ऐसे ही-उष्ट्रक: । गर्दभकः । कन् (२) संज्ञायां च।६७। प०वि०-संज्ञायाम् ७१ च अव्ययपदम् । अनु०-कन्, इवे इति चानुवर्तते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003299
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1998
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy