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________________ प्रथमाध्यायस्य तृतीयः पादः । ૧૬૬ आर्यभाषा-अर्थ-(उपात्) उप-उपसर्ग से परे (अकर्मकात्) अकर्मक (स्थः) स्था धातु से (कतीरे) कर्तृवाच्य में (आत्मनेपदम्) आत्मनेपद होता है। उदा०-यावद्भुक्तमुपतिष्ठते देवदत्तः । देवदत्त प्रत्येक भोजन में उपस्थित होता है। यावदोदनमुपतिष्ठते यज्ञदत्तः । यज्ञदत्त प्रत्येक ओदन-भोजन में उपस्थित होता है। सिद्धि-उपतिष्ठते। यहां उप उपसर्गपूर्वक अकर्मक स्था धातु से इस सूत्र से आत्मनेपद है। तप सन्तापे (भ्वा०प०) (१६) उद्विभ्यां तपः।२७। प०वि०-उद्-विभ्याम् ५ ।२ तप: ५।१ । स०-उत् च विश्च तौ-उद्वी, ताभ्याम्-उद्विभ्याम् (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। अनु०-'अकर्मकात्' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-उद्विभ्याम् अकर्मकात् तप: कतरि आत्मनेपदम्। अर्थ:-उद्-वि-उपसर्गपूर्वाद् अकर्मकात् तपो धातो: कर्तरि आत्मनेपदं भवति। उदा०-(उत्) उत्तपते। (वि) वितपते। आर्यभाषा-अर्थ-(उद्-विभ्याम्) उत् और वि उपसर्ग से परे (अकर्मकात्) अकर्मक (तपः) तप धातु से (कतीरे) कर्तृवाच्य में (आत्मनेपदम्) आत्मनेपद होता है। उदा०-उत-उत्तपते। अतिसंतापयुक्त होता है। वि-वितपते । सन्ताप को हटाता है। सिद्धि-(१) उत्तपते। उत्+ता+लट् । उत्+तप्+शप्+त। उत्+तप्+अ+ते। उत्तपते। यहां उत्' उपसर्गपूर्वक तप संतापे' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् लट्' प्रत्यय और उसके स्थान में आत्मनेपद त' आदेश होता है। ऐसे ही-वितपते। यम उपरमे (भ्वा०प०) हन् हिंसागत्योः (अ०प०) (१७) आङो यमहनः।२८। प०वि०-आङ: ५१ यमहन: ५।१। स०-यमश्च हन् च एतयो: समाहार:-यमहन्, तस्मात्-यमहन: (समाहारद्वन्द्व:)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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