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________________ चित्रा तु देशनैतेषां स्याद् विनेयानुगुण्यतः । यस्मादेते महात्मनो भवव्याधि भिषग्वरा ॥ अर्थात् जिस प्रकार एक अच्छा वैद्य रोगी की प्रकृति, ऋतु आदि को ध्यान में रखकर एक ही रोग के लिए दो व्यक्तियों को अलग-अलग औषधी प्रदान करता है, उसी प्रकार धर्ममार्ग के उपदेष्टा ऋषिगण भी भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले व्यक्तियों के लिए अलगअलग साधनाविधि प्रस्तुत करते हैं। देश, काल और रूचिगत वैचित्र्य धार्मिक साधना पद्धतियों की विभिन्नता का आधार है। वह स्वभाविक है, अत: उसें अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है। धर्मक्षेत्र में साधनागत विविधताएँ सदैवरही हैं और रहेंगी, किन्तु उन्हें विवाद का आधार नहीं बनाया जाना चाहिए।' हमें प्रत्येक साधना पद्धति की उपयोगिता और अनुपयोगिता का मूल्यांकन उन परिस्थितियों में करना चाहिए जिसमें उनका जन्म होता है। उदाहरण के रूप में, मूर्तिपूजा का विधान और मूर्तिपूजा का निषेध दो भिन्न देशगत और कालगत परिस्थितियों की देन है और उनके पीछे विशिष्ट उद्देश्य रहे हुए हैं। यदि हम उन संदर्भो में उनका मूल्यांकन करते हैं, तो इन दो विरोधी साधना पद्धतियों में भी हमें कोई विरोध नजर नहीं आयेगा। सभी धार्मिक साधना पद्धतियों का एक लक्ष्य होते हुए भी उनमें देश, काल, व्यक्ति और परिस्थिति के कारण साधनागत विभिन्नताएँ आई हैं। उदाहरण के रूप में, हिन्दू धर्म और इस्लाम दोनों में उपासना के पूर्व शारीरिक शुद्धि का विधान है। फिर भी दोनों की शारीरिक शुद्धि की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न हैं। मुसलमान अपनी शारीरिक शुद्धि इस प्रकार से करता है कि उसमें जल की अत्यल्प मात्रा का व्यय हो, वह हाथ और मुँह को नीचे से उपर की ओर धोता हैं क्योकि इसमें पानी की मात्रा कम खर्च होती है। इसके विपरीत हिन्दू अपने हाथ और मुँह उपर से नीचे की ओर धोता है। इसमें जल की मात्रा अधिक खर्च होती है। शारीरिक शुद्धि का लक्ष्य समान होते हुए भी अरब देशों में जल का अभाव होने के कारण एक पद्धति अपनाई गई, तो भारत में जल की बहुलता होने के कारण दूसरी पद्धति अपनाई गयी। अत: आचार के इन बाहरी रूपों को लेकर धार्मिकता के क्षेत्र में जो विवाद चलाया जाता है, वह उचित नहीं है। चाहे प्रश्न मूर्तिपूजा का हो या अन्य कोई, हम देखते हैं कि उन सभी के मूल में कहीं न कहीं देश, काल और व्यक्ति के रूचिगत वैचित्र्य का आधार होता है। इस्लाम ने चाहे कितना ही बुतपरस्ती का विरोध किया हो, किन्तु मुहर्रम, कब्र-पूजा आदि के नाम पर प्रकारान्तर से धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्मः 8 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003243
Book TitleDharmik Sahishnuta aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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