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________________ उसमें मूर्तिपूजा प्रविष्ट हो ही गयी है। इसी प्रकार इस्लाम एवं अन्य परिस्थितियों के प्रभाव से हिन्दू और जैन धर्म में अमूर्ति पूजक सम्प्रदायों का विकास हुआ। अत: धार्मिक जीवन की बाह्य आचार एवं रीति-रिवाज़ सम्बन्धी दैशिक, कालिक और वैयक्तिक भिन्नताओं को धर्म का मूलाधार न मानकर इन भिन्नताओं के प्रति एक उदार और व्यापक दृष्टिकोण रखना आवश्यक है । हमें इन सभी विभिन्नताओं को उनके उद्भव की मूलभूत परिस्थितियों में समझने का प्रयत्न करना चाहिए। शास्त्र की सत्यता का प्रश्न धार्मिकता के क्षेत्र में अनेक बार यह विवाद भी प्रमुख हो जाता है कि हमारा धर्मशास्त्र ही सच्चा धर्मशास्त्र है और दूसरों का धर्मशास्त्र सच्चा और प्रमाणिक नहीं है। इस विषय में प्रथम तो यह जान लेना चाहिए कि धर्मशास्त्र का मूल स्त्रोत तो धर्मप्रर्वतक के उपदेश ही होते हैं और सामान्यतया प्राचीन धर्मों में वे मौखिक ही रहे हैं। जिन्होंने उन्हें लिखित रूप दिया, वे देश और कालगत परिस्थितियों से सर्वथा अप्रभावित रहें हों, यह कहना बड़ा कठिन हैं। महावीर के उपदेश उनके परिनिर्वाण के एक हजार वर्ष बाद लिखे गये - क्या इस कालावधि में उसमें कुछ घटाव- बढ़ाव नहीं हुआ होगा? न केवल यह प्रश्न जैन शास्त्रों का है अपितु हिन्दू और बौद्धधर्म के शास्त्रों का भी है। दुर्भाग्य से किसी भी धर्म का धर्मशास्त्र, उसके उपदेष्टा के जीवन काल में नहीं लिखा गया। न महावीर के जीवन में आगम लिखे गये, न बुद्ध के जीवन में त्रिपिटक लिखे गये, न ईसा के जीवन में बाइबिल और न मुहम्मद के जीवन में कुरान । पुन: यदि प्रत्येक धर्मशास्त्र में से दैशिक,कालिक और वैयक्तिक तथ्यों को अलग कर धर्म के उत्स या मूल तत्व को देखा जाये, तो उनमें बहुत बड़ी भिन्नता भी दृष्टिगोचर नहीं होती है। आचार के सामान्य नियम-हत्या मत करो, झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, व्यभिचार मत करो, नशीले पदार्थों का सेवन मत करो, संचयवृत्ति से दूर रहो और अपने धन का दीन-दुखियों मे उपयोग करो- ये सब बातें सभी धर्मों में समान रूप से प्रतिपादित हैं। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि हम इन मूलभूत आधार स्तम्भों को छोड़कर उन छोटी-छोटी बातों को ही अधिक पकडते हैं, जिनसे पारस्परिक भेद की खाई और गहरी होती है। जैनों के सामने भी शास्त्र की सत्यता और असत्यता का प्रश्न आया था। धार्मिक सहिष्णुताऔर जैनधर्मः 9 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003243
Book TitleDharmik Sahishnuta aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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