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________________ रीतिरिवाजों और कर्मकाण्डों को ही धर्म कहकर समझाया है। वस्तुत: आज आवश्यकता इस बात की हैं कि मनुष्य धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझे। आज मानव समाज के समक्ष धर्म के उस सारभूत तत्त्व को प्रस्तुत किये जाने की आवश्यकता है, जो सभी धर्मों में सामान्यतया उपस्थित है और उनकी मूलभूत एकता का सूचक है। आज धर्म के मूल हार्द और वास्तविक स्वरूप को समझे बिना हमारी धार्मिकता सुरक्षित नहीं रह सकती ह। यदि आज धर्म के नाम पर विभाजित होती हुई इस मानवता को पुन: जोड़ना है तो हमें धर्म के उन मूलभूत तत्त्वों को सामने लाना होगा, जिनके आधार पर इन टूटी हुई कड़ियों को पुन: जोड़ा जा सके। धर्म का मर्म , यह सत्य है कि आज विश्व में अनेक धर्म प्रचलित हैं । किन्तु यदि हम गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो इन विविध धर्मों का मूलभूत लक्ष्य है - मनुष्य को एक अच्छे मनुष्य के रूप में विकसित कर उसे परमात्म तत्त्व की ओर ले जाना। जब तक मनुष्य, मनुष्य नहीं बनता और उसकी यह मनुष्यता देवत्व की ओर अग्रसर नहीं होती, तब तक वह धार्मिक नहीं कहा जा सकता। यदि मनुष्य में मानवीय गुणों का विकास ही नहीं हुआ है तो वह किसी भी स्थिति में धार्मिक नहीं है। 'अमन' ने ठीक ही कहा है - इन्सानियत से जिसने बशर को गिरा दिया। या रब ! वह बन्दगी हुई या अबतरी हुई। मानवता के बिना धार्मिकता असम्भव है। मानवता धार्मिकता का प्रथम चरण ह। मानवता का अर्थ है- मनुष्य में विवेक विकसित हो, वह अपने विचारों, भावनाओं और हितों पर संयम रख सके तथा अपने साथी प्राणियों के सुख-दु:ख समझ सके । यदि यह सब उसमें नहीं है तो वह मनुष्य ही नहीं है, तो फिर उसके धार्मिक होने का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि कोई पशुधार्मिक या अधार्मिक नहीं होता, मनुष्य ही धार्मिक या अधार्मिक होता है। यदि मानवीय शरीर को धारण करने वाला व्यक्ति अपने पशुत्व से ऊपर नहीं उठ पाया है तो उसके धार्मिक होने का प्रश्न तो बहुत दूर की बात है। मानवीयता धार्मिकता की प्रथम सीढ़ी है। उसे पार किये बिना कोई धर्ममार्ग में प्रवेश नहीं कर सकता। मनुष्य का प्रथम धर्म मानवता है। धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्म: 4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003243
Book TitleDharmik Sahishnuta aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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