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________________ मनुष्य से और आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की कला है। धर्म का अवतरण मनुष्य को शाश्वत शान्ति और सुख देने के लिए हुआ है, किन्तु हमारी मतान्धता और उन्मादी वृत्ति कारण धर्म के नाम पर मनुष्य- मनुष्य के बीच भेद की दीवारें खड़ी की गयी और उसे एक दूसरे का प्रतिस्पर्धी बना दिया गया । मानव जाति के इतिहास में जितने युद्ध और संघर्ष हुए हैं, उनमें धार्मिक मतान्धता एक बहुत बड़ा कारण रही है। धर्म के नाम पर मनुष्य ने अनेक बार खून की होली खेली है और आज भी खेल रहा है । विश्व इतिहास का अध्येता इस बात को भलीभाँति जानता है कि धार्मिक असहिष्णुता ने विश्व में जघन्य दुष्कृत्य कराये है । आश्चर्य तो यह है कि दमन, अत्याचार, नृशंसता और रक्त - प्लावन की इन घटनाओं को धर्म का जमा पहनाया गया और ऐसे युद्धों को धर्मयुद्ध कहकर मनुष्य क दूसरे के विरूद्ध उभाड़ा गया । शान्ति, सेवा और समन्वय का प्रतीक धर्म ही अशान्ति, तिरस्कार और वर्ग - विद्वेष का कारण बना । यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए हि धर्म के नाम पर जो कुछ किया या कराया जाता है, वह सब धार्मिक नहीं होता। इन सबके पीछे वस्तुत: धर्म नहीं, धर्म के नाम पर पलने वाली व्यक्ति की स्वार्थपरता काम करती है। वस्तुतः कुछ लोग अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए मनुष्यों को धर्म के नाम पर एक दूसरे के विरोध में खड़ा कर देते हैं। धर्म भावना - प्रधान हैं और भावनाओं को उभाड़ना सहज होता हैं । अतः धर्म ही एक ऐसा माध्यम है जिसके नाम पर मनुष्यों को एक दूसरे के विरूद्ध जल्दी उभाड़ा जा सकता है। इसीलिए मातान्धता, उन्मादी और स्वार्थी तत्त्वों ने धर्म को सदैव ही अपने हितों की पूर्ति का साधन बनाया है । जो धर्म मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने के लिए था, उसी धर्म के नाम पर अपने से विरोधी धर्मवालों को उत्पीड़ित करने और उस पर अत्याचार करने के प्रयत्न हुए हैं और हो रहे हैं । किन्तु धर्म के नाम पर हिंसा, संघर्ष और वर्ग-विद्वेष की जो भावनाएँ उभाड़ी जा रही हैं, उसका कारण क्या धर्म है ? वस्तुतः धर्म नहीं, अपितु धर्म का आवरण डालकर मानव की महत्वकांक्षा, उसका अंहकार और उसकी क्षुद्र स्वार्थपरता ही यह सब कुछ करवा रही है । यथार्थ में यह धर्म का नकाब डाले हुए अधर्म ही है। धर्म के सारतत्त्व का ज्ञान - मतान्धता से मुक्ति का मार्ग दुर्भाग्य यह है कि आज जनसामान्य - जिसे धर्म के नाम पर सहज ही उभाड़ा जाता है – धर्म के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ है, वह धर्म के मूल हार्द को नहीं समझ पाया ह । उसकी दृष्टि में कुछ कर्मकाण्ड और रीतिरिवाज ही धर्म है। हमारा दुर्भाग्य यह है कि हमारे तथाकथित धार्मिक नेताओं ने हमें धर्म के मूल हार्द से अनभिज्ञ रखकर, इन Jain Education International धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्म: 3 For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.003243
Book TitleDharmik Sahishnuta aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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