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________________ दृष्टिकोणों (दर्शनों) को इस प्रकार वात्सल्य दृष्टि से देखता है जिस प्रकार कोई पिता अपने पुत्र को। एक सच्चे अनेकान्त वादी की दृष्टि न्यूनाधिक नहीं होती है। वह सभी के प्रति समभाव रखता है अर्थात् विचारधारा या धर्म-सिद्धान्त की सत्यता का विशेष परिपेक्ष्य में दर्शन करता है। आगे वे पुन: कहते हैं कि सच्चाशास्त्रज्ञ कहे जाने का अधिकारी वही है जो स्याद्वाद अर्थात् उदार दृष्टिकोण का आलम्बन लेकर सम्पूर्ण विचारधाराओं को समान भाव से देखता है । वस्तुत: माध्यस्थ भाव ही शास्त्रों का गूढ़ रहस्य है और यही सच्चा धर्मवाद है। माध्यस्थ भाव अर्थात् उदार दृष्टिकोण के रहने पर शास्त्र के एक पद का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा करोड़ों शास्त्रों का ज्ञान भी वृथा हैं। जैनधर्म और धार्मिक सहिष्णुता के प्रसंग जैनाचार्यों का दृष्टिकोण प्रारम्भ से ही उदार और व्यापक रहा है । यही कारण है कि उन्होंने दूसरी विचारधाराओं और विश्वासों के लोगों का सदैव आदर किया है। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण उदाहरण जैन परम्परा का एक प्राचीनतम ग्रन्थ है - ऋषिभाषित । ऋषिभाषित के अन्तर्गत उन पैतालीस अर्हत् ऋषियों के उपदेशों का संकलन है, जिनमें पार्श्वनाथ और महावीर को छोड़कर लगभग सभी जेनेतर परम्पराओं के हैं। नारद, भारद्वाज, नमि, रामपुत्र, शाक्यपुत्र गौतम, मंखलि गोशाल आदि अनेक धर्ममार्ग के प्रवर्तकों एवं आचार्यों के विचारों का इसमें जिस आदर के साथ संकलन किया गया है वह धार्मिक उदारता और सहिष्णुता का परिचायक है। इन सभी को अर्हत् ऋषि कहा गया है 27 और इनके वचनों को आगमवाणी के रूप में स्वीकार किया गया है। सम्भवत: प्राचीन धार्मिक साहित्य में यही एकमात्र ऐसा उदाहरण है, जहाँ विरोधी विचारधारा और विश्वासों के व्यक्तियों के वचनों को आगमवाणी के रूप में स्वीकार कर समादर के साथ प्रस्तुत किया गया हो।। ___ जैन परम्परा की धार्मिक उदारता की परिचायक सूत्रकृतांग की पूर्वनिर्दिष्ट वह गाथा भी है, जिसमें यह कहा गया है कि जो अपने-अपने मत की प्रशंसा करते हैं और दूसरों के मतों की निन्दा करते हैं तथा उनके प्रति विद्वेषभाव रखते हैं। वे संसारचक्र में परिभ्रमित होते रहते हैं । सम्भवत: धार्मिक उदारता के लिए इससे धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्म: 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003243
Book TitleDharmik Sahishnuta aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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