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________________ सकते हैं। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर सन्मतितर्क में कहते है णिययवयणिज्जसच्चा सव्वनया पर वियालणे मोहा । ते उण ण दिट्ठसमओ विभयइ सच्चे व अलिए वा ।। 24 1 अर्थात् सभी नय अर्थात् सापेक्षिक वक्तव्य अपने-अपने दृष्किोण से सत्य है । वे असत्य तभी होते हैं जब वे अपने से विरोधी दृष्टिकोणों के आधार पर किये गये कथनों का निषेध करते हैं । इसीलिए अनेकान्त दृष्टि का समर्थक या शास्त्र का ज्ञाता उन परस्पर विरोधी सापेक्षिक कथनों में ऐसा विभाजन नहीं करता है कि ये सच्चे हैं और ये झूठे हैं। किसी कथन या विश्वास की सत्यता और असत्यता उस सन्दर्भ अथवा दृष्टिकोण विशेष पर निर्भर करती है जिसमें वह कहा गया हैं । वस्तुत: यदि हमारी दृष्टि उदार और व्यापक है तो हमें परस्पर विरोधी कथनों की सापेक्षिक सत्यता hat स्वीकार करना चाहिए । परिणामस्वरूप विभिन्न धर्मवादों में पारस्परिक विवाद या संघर्ष का कोई कारण शेष नहीं बचता । जिस प्रकार परस्पर झगड़ने वाले व्यक्ति किसी तटस्थ व्यक्ति के अधीन होकर मित्रता को प्राप्त कर लेते हैं उसी प्रकार परस्पर विरोधी विचार और विश्वास अनेकान्त की उदार और व्यापक दृष्टि के अधीन होकर पारस्परिक विरोध को भूल जाते हैं । 25 उपाध्याय यशोविजय जी लिखते हैं V यस्य सर्वत्र समता नयेषु तनयेष्विव । तस्यानेकान्तवादस्य क्व न्यूनाधिकशेमुषी ॥ तेन स्याद्वादमालंब्य सर्वदर्शनतुल्यताम् । मोक्षोद्देशाविशेषेण यः पश्यति स शास्त्रवित् ॥ माध्यस्थ्यमेव शास्त्रार्थो येन तच्चारू सिध्यति । स एव धर्मवादः स्यादन्यद्बालिशवल्गनम् ॥ माध्यस्थ्यसहितं ह्येकपदज्ञानमपि प्रमा शास्त्रकोटिर्वृथैवान्या तथा चोक्तं महात्मना || 2" अर्थात् सच्चा अनेकान्तवादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता है । वह सम्पूर्ण Jain Education International धार्मिक सहिष्णुता और जैनधर्म: 24 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003243
Book TitleDharmik Sahishnuta aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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