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________________ 229 3. दोनों हाथों की कलाइयों पर तिलक करने का दोहा लोकांतिक वचने करी, वरस्या वरसी दान । कर-कांडे प्रभु पूजनां, पू जी भवि बहुमान ॥3॥ अर्थ-हे प्रभो! तीर्थ प्रवर्तान के लिए लोकांतिक देवों की प्रार्थना करने पर आपने तुरंत ही राजसी वैभव के व्यामोह का त्याग कर दीक्षा लेने का निश्चय किया और वरसीदान देना शुरू कर दिया। जिससे करोड़ों संकट ग्रस्त भव्य नर-नारियों को संतोष प्राप्त हुआ। हे दयानिधे ! मैं आपके उन पावन हाथों की कलाइयों की बहुमान पूर्वक पूजा करते हुए सविनय प्रार्थना करता हूँ कि मुझे भी ऐसी शक्ति प्राप्त हो कि मैं भी वरसी (लगातार एक वर्ष तक) दान दे सकू। 4. दोनों कन्धों पर तिलक करने का दोहा मान गयं दोय अंश थी, देखी वीर्य अनन्त । __ भुजा बले भवजल तर्या, पू जो खंघ महन्त ॥4॥ अर्थ-हे प्रभो ! आपका अनन्त बल देखकर मान (अहंकार) सर्वथा समाप्त हो गया। हे भगवन ! इस संसार रूप समुद्र को आप अपने भुजाबल से तरे । इसलिए मैं आपके इस महान समर्थशाली कन्धों की बड़ी भक्ति पूर्वक पूजा करके प्रार्थना करता हूँ कि मुझ में भी आपके समान ऐसी शक्ति प्रगट हो कि बिना परमुखापेक्षी बने मुझ में अपने आत्मकल्याण को स्व पुरुषार्थ से प्राप्त करने का सामर्थ्य हो । 5. सिर की चोटी में तिलक करने का दोहा सिद्ध शिला गुण ऊजली, लोकान्ते भगवन्त । वसिया तेने कारण भवि, शिर शिखा पूजन्त ॥5॥ अर्थ-हे भगवन ! आपने सब अघाती-धनघाती कर्मों का सर्वथा नाश करके कर्म रज से सर्वथा निर्लेप हो कर सब प्रकार के आत्मा के उज्ज्वल गुणों को प्राप्त कर लिया है। इस कारण से आप सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर लोक के सर्वोच्च स्थान के अग्र"भाग स्थित सिद्धशिला पर जा विराजे हैं । इसलिए हे जिनेश्वर प्रभो ! मैं आपके सिर की चोटी की पूजा करके प्रार्थना करता हूँ कि मैं भी सब प्रकार के कर्मों को क्षय करके 'निरंजन निर्विकार स्वरूप (सिद्धावस्था) प्राप्त करके लोक के अग्रभाग में सिद्धशिला पर पहुंच जाऊं। 6. ललाट (मस्तक) पर तिलक पूजा का दोहा तीर्थंकर पद पुण्य थी, तिहुण जन सेवन्त । त्रिभुवन तिलक समां प्रभो ! भाल तिलक जयवन्त ॥6॥ अर्थ-हे तीर्थनाथ ! मोक्ष पाने से तीन जन्म पहले आपने बीसस्थानक का तप करके तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन किया। उस कर्म के पुण्य प्रभाव (उदय) से इस जन्म में आपने तीर्थकर पदवी पाई है जिससे आप तीन (ऊर्ध्व, मध्य और अधो) लोक के समस्त प्राणियों के पूज्य बनकर सारे विश्व में तिलक समान हो गए हैं । अतः मैं आप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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