SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 228 समृद्धि की कोई कमी न होते हुए भी आप भाव मुनि की अवस्था में गृह में रहते हुए भी इन सब वस्तुओं का उपयोग करते हुए भी इनके प्रति सदा निराग भाव से ही रहे। दीक्षा के समय आप चक्रवर्ती के वेश में सुसज्जित होने पर भी आपको इनके प्रति मूर्छा छू नहीं पायी थी। मन में वैराग्य की उमियाँ हिलोरें खा रही थीं केवलज्ञान पाने के बाद स्वर्ण सिंहासन आदि आठ प्रातहार्यों तथा नव स्वर्णकमलों पर सदा विहार करते हुए भी आप सदा सर्व परिग्रह त्यागी ही थे। कारण यह है कि आपको इनके प्रति किंचत पात्र भी मूर्छा नहीं थी। हे धर्मचक्रवर्ती प्रभो ! जो लोग इस पूजा से आपको परिग्रह का आरोप करते हैं ऐसे अंध लोगों को सद्बुद्धि प्राप्त हो । धन्य हैं आप चक्रवर्ती की समृद्धि के प्रति भी सदा विरक्त रहे आप की अपार ऋद्धि-स्मृद्धि के सामने मेरे पास यह जो नगन्य सांसारिक भोग उपभोग सामग्री प्राप्त है उससे चिपट कर अधोगति का भागी बन रहा हूं। आप की इस पूजा करने से मेरी इस परिग्रह से मूर्छा छूटे। यह मूर्छा ही संसार में चौरासी लाख जीवायोनियों में अनादि काल से मेरी आत्मा को जन्म मरण के चक्र में उलज्झाये हुए है । मुझे आप की पूजा का यह फल हो कि मेरा संसार के प्रति अनासक्त भाव सदा जाग्रत रहे। 3. प्रभ के नव अंगों पर चन्दनादि से तिलक (टीकी) करने के दोहे। 1. दोनों चरणों के अगूठों पर तिलक करने का दोहा जलभरी संप ट-पत्र में, युगलिक-नर पूजन्त । ऋषभ चरण -अंगूठडे, दायक भव-जल अन्त ॥1॥ अर्थ:-हे ऋषभदेव प्रभो। जिस प्रकार युगलिये पुरुषों ने आपके चरणों के अंगठों की पत्तों के दोनों (डनों) में जलभरकर पूजा की थी उसी प्रकार मैं भी जलचन्दनादि से आपके चरणों की पूजा करता हूं। क्योंकि आपके चरण संसार में अनादि काल से भटकते हुए भव्य प्राणियों को शाश्वत शांति प्रदान करने (संसार का अन्त करने-मोक्ष देने) वाले हैं । अतः आपसे प्रार्थना है कि आपके चरण कमलों की भक्ति से मुझे भी मोक्ष प्राप्त हो। 2. दोनों घुटनों (गोडों) पर तिलक करने का दोहा जानू बले काउसग्ग रह्या, विचर्या देश-विदेश । खडे-खड़े केवल लह्या, पू जो जान नरेश ॥2॥ अर्थः-हे प्रभु ! आपने राजसी वैभवों का त्यागकर परम कल्याणकारी दीक्षा को ग्रहण किया तथा वर्षों तक कठोर तप करके अनेक प्रकार उपसर्गों और परिषहों को समता पूर्वक सहन करते हुए अपने घुटनों के बल खड़े-खड़े काउसग्ग किये । सर्वघाती कर्मों को क्षयकर केवल दर्शन, केवलज्ञान प्राप्त किये। उन्हीं घुटनों के द्वारा पैदल विहार करते हुए देश-विदेशों में विचर कर अनादि काल से इस भव अटवी में भटकते हए भव्य प्राणियों को परम कल्याणकारिणी द्वादशांगी वाणी द्वारा सच्चा मार्ग बतला कर शाश्वत सुख प्रदान किया । हे प्रभो ! आपके गोड़ों की पूजा करने से मुझे भी केवल ज्ञान प्राप्त हो और सर्व प्राणियों को मोक्ष मार्ग पाने को प्रेरित करूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003237
Book TitleJain Dharm aur Jina Pratima Pujan Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1984
Total Pages258
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy