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________________ | अरिहंत-चेइयाणं (चैत्यस्तव) सूत्र अरिहंत-चेइयाणं करेमि काउस्सग्गं । (अर्थ-) मैं कायोत्सर्ग करता हूं अरिहंत प्रभु की प्रतिमाओं के १. वंदणवत्तियाए (मन-वचन-काया से संपन्न) वंदन हेतु २. पूअणवत्तियाए (पुष्पादि से सम्पन्न) पूजन हेतु, ३. सक्कारवत्तियाए (वस्त्रादि से सम्पन्न) सत्कार हेतु, ४. सम्माणवत्तियाए (स्तोत्रादि से सम्पन्न) सन्मान हेतु, ५. बोहिलाभवत्तियाए (तात्पर्य, वंदनादि की अनुमोदना के लाभार्थ) ६. निरुवसग्गवत्तियाए (एवं) सम्यक्त्व हेतु, मोक्ष हेतु, (यह भी कायोत्सर्ग 'किन साधनों' १. सद्धाए से ? तो कि) वड्ढमाणीए बढती हुई २. मेहाए श्रद्धा = तत्वप्रतीति से (शर्म-बलात्कार से नहीं), ३. धिईए मेधा = शास्त्रप्रज्ञा से (जडता से नहीं) ४. धारणाए धृति = चित्तसमाधि से (रागादिव्याकुलता से नहीं) ५. अणुप्पेहाए धारणा = उपयोगदृढता से (शून्य-चित्त से नहीं) वढमाणीए अनुप्रेक्षा = तत्त्वार्थचिंतन से (बिना चिंतन नहीं), ठामि काउस्सग्गं मैं कायोत्सर्ग करता हूं। (समझ ) यह सूत्र, अर्हद्-बिम्बों को भव्यात्माओं के द्वारा होते हुए वंदन-पूजन आदि का अनुमोदना द्वारा लाभ पाने के लिए एवं सम्यक्त्व-मोक्ष का लाभ पाने के लिए जो कायोत्सर्ग करना है, उसके लिए बोला जाता है | सूत्र में दो भाग हैं, (१) एक, कायोत्सर्ग के ६ निमित्त यानी जिन प्रयोजनों से कायोत्सर्ग किया जाता है, (२) दूसरा, कायोत्सर्ग के ५ साधन, जिनको कायोत्सर्ग में जूटाना हैं। छ: प्रयोजनों में, (१) चार प्रयोजन अर्हत्-प्रतिमाओं के वंदन-पूजन-सत्कार-सम्मान के लाभ, एवं (२) दो प्रयोजन बोधिलाभ व मोक्ष के लाभ हैं । इसलिए ध्यान में रहे कि 'अरिहंत-चेइयाणं' पद का संबन्ध मात्र 'वंदणवत्तियाए' से ले कर 'सम्माणवत्तियाए' तक के चार पदों के साथ जोड़ना है, और यह जोड़ने के बाद 'करेमि काउस्सग्गं' पद जूटेगा। जैसे कि, 'अरिहंत-चेइयाणं वंदणवत्तियाए करेमि काउस्सग्गं' 'अरि०चेइ. पूअणवत्तियाए करेमि काउ०, अरि० चे० सक्कार. क. का.,' 'अरि० चे० सम्माण. क. काउ० ।' बाकी दो में 'अरि० चेइ०' नहीं, किन्तु 'करेमि काउस्सग्गं' पद जूटेगा, जैसे कि 'करेमि काउ० बोहिलाभवत्तियाए, 'करेमि का. निरुवसग्गवत्तियाए' । पाँच साधनों के 'सड्ढाए' आदि पद हैं, व 'वड्ढमाणीए' पद इस प्रत्येक के साथ जूटेगा, जैसे कि सड्ढाए वड्ढमाणीए, मेहाए वड्ढमाणीए...| कायोत्सर्ग इस बढ़ती हुई श्रद्धा-मेधा आदि को साथ में रख कर करना हैं, अतः ये साधन हैं । चित्र में ऊपर सीधी लाईन में हैं वैसे 'अरिहंत-चेइयाणं' बोलते समय अर्हद्-बिम्ब दृष्टि में आवें । 'वंदणवत्तियाए' बोलते समय चित्र की तरह हजारों भाविकों से की जाती वंदना, 'पूअणवत्ति समय चित्र २ के अनुसार कई पूजकों से होती पुष्पादिपूजा, 'सक्कारवत्ति०' वक्त चित्र ३ के समान वस्त्र-आभूषणादि से सत्कार, एवं सम्माणवत्ति०' बोलते समय चित्र ४ की तरह भाविकों से किये जाते स्तुति-गुणगान दृष्टि में आवे व प्रत्येक में अतीव हर्ष हो, 'वाह ! प्रभु को हजारों-लाखों से किया जाता कैसा बढ़िया सुन्दर वंदन !...पूजन ! सत्कार ! सन्मान ! (५) 'बोहिलाभवत्तियाए' में बोधिलाभ सम्यक्त्व दृष्टि में लाने के लिये एक दृष्टान्तरुप से चित्र के बाँये मध्य में दिखाई वैसी चन्दनबाला (या अन्य किसी) का (अत्यन्त) प्रभुप्रेम व प्रभुवचन-श्रद्धा दृष्टि में आये । वह भोयरे में ३ दिन भूखी प्यासी कैद होती हुई भी स्वकर्म का दोष देखती हुई चित्त में प्रसन्नता से प्यारे वीरप्रभु का स्मरण कर रही है । (६) 'निरुवसग्ग०' बोलते वक्त चित्र दायें मध्य की तरह सिद्धशिला पर विराजित अनन्त सिद्धों से प्राप्त निरुपसर्ग मोक्ष दृष्टि में आवे | चित्र में नीचे कायो० के ५ साधन श्रद्धा-मेधादि को दृष्टान्त विवरण के साथ दिखाये हैं, जैसे कि-श्रद्धा जलशोधक मणि की तरह चित्त की मलिनता की नाशक है । मेधा जैसे रोगी को औषध के प्रति, वैसे शास्त्रग्रहण के प्रति अति आदर व प्रज्ञा-कौशल्य रुप है । धृति चिन्तामणि की प्राप्ति के समान जैन धर्म व कायोत्सर्गादि की प्राप्ति से धैर्यनिश्चिन्तता स्वरुप है । धारणा मोतीमाला में परोये मोतीवत् चिन्तनीय पदार्थों का दृढ़ श्रेणिबद्ध संकलनरुप है । अनुप्रेक्षा तत्वार्थ-चिन्तन रुप है, और वह परम संवेगदृढ़तादि द्वारा आग की तरह कर्ममल को जला देती है। |३१|Non |३१ se Only www.jairtelibraryorg
SR No.003233
Book TitlePratikraman Sutra Sachitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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