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________________ जावंत के वि साहू भरहेरवय-महाविदेहे य । सव्वेसि तेसिं पणओ तिविहेण तिदंड-विरयाणं ॥ (९) आयरिय उवज्झाए, सीसे साहम्मिए कुलगणे य । जे मे केइ कसाया, सव्वे तिविहेण खामेमि || (२) सव्वस्स समणसंघस्स, भगवओ अअलि करिय सीसे । सव्वं खमावइत्ता, खमामि सव्वस्स अहयं पि ।। (३) सव्वस्स जीवरासिस्स, भावओ धम्म-निहिय-नियचित्तो । सव्वं खमावइत्ता, खमामि सव्वस्स अहयं पि ॥ जावंत के वि साहू सूत्र (अर्थ) जितने भी भरत-ऐरवत महाविदेह में (करण करावण अनुमोदन) त्रिविध रीति से त्रिदंड (मन-बचन काया की असत् प्रवृति) से निवृत्त कोई साधु है उन सब को मैं वंदन करता हूं । आयरिय उवज्झाए सूत्र Jain Education International सव्वस्स वि राइअ (देवसिअ) दुच्चिन्ति दुब्भासिअ दुच्चिट्ठिअ, (इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ? इच्छं, तस्स) मिच्छामि दुक्कडं । (१) आचार्य-उपाध्याय के प्रति, शिष्य के प्रति, साधर्मिक के प्रति, कुल-गण के प्रति (कुल = एक आचार्य का समुदाय) मुझ से जो कोई कषाय हुए हो, उन की उन सब के आगे त्रिविध (मनवचन-काया) से मैं क्षमा मांगता हूं । (समझ ) चित्र में दिखाये अनुसार मनुष्य लोक २।। द्वीप के ५-५ भरत-ऐरवत-महाविदेह क्षेत्र में रहे हुए मुनिराजों को विविध योग में देखते है । उन में कई विहार कर रहे हैं, कई गोचरी जाते हैं, कई आवश्यक क्रिया, प्रतिलेखना, स्वाध्याय या सेवा या ध्यान कायोत्सर्ग-केशलोच आदि कर रहे हैं, कई अध्ययन कराते हैं, इत्यादि । ये सब के सब मन-वचन-काया के असद् विचार-वाणी-वर्तन से त्रिविधे निवृत्त हैं, यानी ऐसी असत् प्रवृत्ति न खुद करते हैं, न दूसरे के पास कराते हैं न किसी की पसंद करते हैं। हम २॥ द्वीप के बाहर रह कर सामने २॥ द्वीप में इन सब मुनि भगवंतों को देख नमस्कार करते हैं ऐसा दृष्टव्य है । (२) पूज्य समस्त श्रमण (साधु) संघ के प्रति मस्तक पर (दो हाथ की) अअलि लगा कर उस समस्त की क्षमा मांग के मैं भी उस समस्त को क्षमा करता हूं । (उनके प्रति उपशान्त होता हूं ।) (३) समस्त जीवराशि के प्रति उपशम भाव से धर्म में अपना चित्त स्थापित कर सबकी क्षमा मांग कर मैं भी सब को क्षमा करता हूं, (उपशान्त होता हूं) । आयरिय-उवज्झाए॰ सूत्र- यहाँ दो गाथा पढ़ते समय चित्रानुसार सम । आचार्य उपाध्यायादि को देखना है । तीसरी गाथा के समय १४ राजलोक को सामने लाकर उसमें एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक सर्व जीवों को देख उनकी क्षमा मांगनी देनी है । 'अड्ढाइज्जेसु०' सूत्र का चित्र भी उपर मुताबिक समझना । सव्वरस वि सूत्र (अर्थ) दुष्ट चिंतन वाले, दुष्ट भाषण वाले व दुष्ट चेष्टा वाले, रात्रि (दिवस) सम्बन्धी समस्त अतिचार का [(क्या...? इसका हे भगवन् ! आपकी इच्छा से आदेश दें । यहाँ गुरु कहें 'इसका प्रतिक्रमण कर' मैं स्वीकार करता हूं, (उस समस्त अतिचार का)] मेरा दुष्कृत मिथ्या हो (अर्थात् मैं दुष्कृत की जुगुप्सा करता हूं ।) २९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary
SR No.003233
Book TitlePratikraman Sutra Sachitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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