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________________ हे प्रभो ! मुझे चारित्र - संपत्र सद्गुरु की संगति मिले। उनके वचन की उपासना ( कथन आदि) का लाभ प्राप्त हो । यह सब कुछ मुझे इस जन्म के अंत तक अथवा संसार - परिभ्रमण पर्यन्त प्राप्त होता रहे ॥ २ ॥ हे वीतराग ! यद्यपि आपके आगमशास्त्र में नियाणा (अर्थात् धर्म के पौद्गलिक फल की निर्धारित कामना) करने का निषेध है, तो भी मेरी यह अभिलाषा है कि मुझे प्रत्येक भव में आपके चरणों की सेवा करने का मिले ॥ ३ ॥ हे नाथ! आपको प्रणाम करने से मेरे भावदुःख (कषाय-विषयलालसा - मनोविकार- दीनता- क्षुद्रतादि) का नाश हो । कर्म का क्षय (कर्मनिर्जरा के मार्ग के प्रति आदरभाव ) हो । मरण के समय समाधि ( मन की राग-द्वेष व हर्ष - खेद से रहित स्थिति) रहे, तथा ( परभव में) बोधिलाभ अर्थात् जैनधर्म की प्राप्ति हो ॥ ४ ॥" सभी मंगलों में मंगलभाव लाने वाला, समस्त कल्याणों का कारणरूप, तथा सब धर्मो में प्रधान ऐसा जैनशासन विजयी रहे ॥ ५ ॥ सूत्र - परिचय जिस प्रकार चक्रवर्ती की सेवा कर के पारितोषिक माँगा जाता है इस प्रकार यहाँ धर्मचक्रवर्ती जिनेश्वर प्रभु की पूजा कर के आध्यात्मिक माँग की गई है। वास्तव में अपनी तीव्र आशंसा व्यक्त की है। इस सूत्र में प्रारम्भ में 'जय वीतराग- जगद्गुरु' भगवान का जयनाद करके भक्त भगवान से Jain Education International ८९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003232
Book TitleAradhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages168
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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