SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्व खंडेलवाल बनिये जिनको जैपुरादिके देशों में सरावगी कहते है और संवत् विक्रम २१७ मे हंसारसें दश कोशके फासले पर अग्रोहा नामक नगरका उज्जड टेकरा बड़ा भारी है तिस अग्रोहे नगरमें विक्रम संवत २१७ के लगभग राजा अग्रके पुत्रांको और नगर वासी कितने ही हजार लोकांकों लोहाचार्यने जैनी करा, नगर उज्जड हुआ. पीछे राजभ्रष्ट होने से और व्यापार वणिज करने से अग्रवाल बनिये कहलाये इसी तरे इस कालकी जैनधर्म पालने वाली सर्व जातियां श्री महावीरसे ७० वर्ष पीछेसे लेके विक्रम संवत् १५७५ साल तक जैन जातियों आचार्योने बनाई है तिनसें पहिलां चारोही वर्ण जैन धर्म पालतेथे इस समयेकी जातियों नहीथी इस प्रश्नोत्तर में जो लेख मैने लिखा है सो बहुत ग्रंथोमे मैने ऐसा लेख बांचा है परंतु मैने अपनी मन कल्पनासे नही लिखा है । प्र.१९ . पूर्वोक्त जातीयोंमें से एक जाती वाले दूसरी जाति वालों सें अपनी जातिको उत्तम मानते है और जाति गर्व करते है तिनकों क्या फल होवेगा । उ. जो अपनी जातिकों उत्तम मानते है यह केवल अज्ञानसें रूढी चली हुइ मालम होती है क्योंके परस्पर विवाह पुत्र पुत्रीका करना और एक नाणेंमें एकठे जीमणां और फेर अपने आपकों उंचा माननां यह अज्ञानता नहीतो दूसरी क्या है और जातिका गर्व करने वाले जन्मांतर में नीच जाति पावेंगे यह फल होवेगा । प्र. २०. सर्व जैन धर्म पालन वालीयों वैश्य जातियां एकठी मिल जायें और जात न्यात नाम निकल जावे तो इस काममें जैन शास्त्रकी कुछ मनाई है वा नही. उ. जैन शास्त्रमेंतो जिस कामके करने से धर्ममें दूषण लगे सो बातकी मनाइ है । शेष तो लोकोने अपनी अपनी रुढीयों मान रखी है। उपरसे प्रश्नोमें जब उसवाल बनाए थे तब अनेक जातियोकी एक जाति बनाइथी इस वास्ते अपनी कोइ समर्थ पुरुष सर्व जातियोंको एकठी करे तो क्या विरोध है । प्र.२१. देवानंदा ब्राह्मणीकी कूखथी त्रिशला क्षत्रियाणीकी कूखमें श्री महावीरस्वामीकों किसने और किसतरेंसें हरण किना । Jain Education International ८ For Private & Personal Use Only १९७९ www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy