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________________ तिसका पुत्र उत्पन्न कुमर तिसका मंत्री उहड ए दोनो जए १० हजार कुटुंब सहित निकलके योधपुर जिस जगेहै तिससे वी कोसके लगभग उत्तर दिशि मे लाखों आदमीयोकी वस्ती रूप उपकेश पट्टन नामक नगर वसाया, तिस नगर में सवालक्ष उपादमीयांकों रत्नप्रभ सूरिने श्रावक धर्ममे स्थाप्या तिस समय तिनके अठारह गोत्र स्थापन करे तिनके नाम तातहड गोत्र १ बापणा गोत्र २ कर्णाट गोत्र ३ वलहरा गोत्र ३ मोराक्ष गोत्र ५ कुलहट गोत्र ६ विरहट गोत्र ७ श्री श्रीमाल गोत्र ८ श्रेष्ठि गोत्र ९ सुचिंती गोत्र १० आइचणाग गोत्र ११ भूरि गोत्र भटेवरा १२ भाद्र गोत्र १३ चीचट गोत्र १४ कुंभट गोत्र १५ किंकु गोत्र १६ कनोज गोत्र १७ लघुश्रेष्ठी १८ येह अठारही जैनी होने से परस्पर पुत्र पुत्रीका विवाह करने लगे और परस्पर खाने पीने लगे इनमें से कितने गोत्रांवाले रजपूतथे और कितने ब्राह्मण और बनियेभी थे इस वास्ते जेकर जैन शास्त्रसें यह काम विरुद्ध होता तो आचार्य महाराज श्री रत्नप्रभसूरिजी इन सर्वकों एकठे न करते इसी रीतीसें पीछे पोरवाड उंसवालादि वंश थापन करे गये है, अन्य कोइ अडचलतो नही है परंतु इस कालके वैश्य लोक अपने समान किसी दूसरी जातिवालेको नही समजते है यह अडचल है । प्र. १७. जैन धर्म नही पालता होय तिसके साथ तो खाने पीने आदिकका व्यवहार न करे परंतु जो जैन धर्म पालता होवे तिसके साथ उक्त व्यवहार होसके के नही. उ. यह व्यवहार करना नाकरना तो बणिये लोकों के अधीन है और हमारा अभिप्रायतो हम उपरके प्रश्नोत्तरमें लिख आए है । प्र. १८. जैन धर्म पालने वालों में अलग अलग जाती देखने में आती है ये जैन शास्त्रानुसारे है के अन्यथा है और ए जातियों किस वखत मे हुइ है । उ. जैन धर्म पालने वाली जातियों शास्त्रानुसारे नही बनी है, परंतु किसी गाम, नगर पुरुष धंधेके अनुसारे प्रचलित हुइ मालम पडती है, श्रीमाल उसवालकातो संवत् उपर लिख आये है और पोरवाक वंश श्री हरिभद्रसूरिजीने मेवाड देशमे स्थापन करा और तिनका विक्रम संवत् स्वर्गवास होने का ५८५ का ग्रंथोमे लिखा है और जैपुरके पास खंकेला गाम है तहां वीरात् ६४३ मे वर्षे जिनसेन आचार्यने ८२ गाम रजपूतोकें और दो गाम सोनारोके एवं सर्व गाम ८४ जैनी करे तिनके चौरासी गोत्र स्थापन करे सो 0000000000000000000SAGEAA56008AONL 00000000000000000000000000000000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003229
Book TitleJain Dharm Vishayak Prashnottara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Kulchandravijay
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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