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________________ आनंदघन और यशोविजय : 49 थे । उनकी ऐसी उन्नत, आनंदमय आध्यात्मिक अवस्था देखकर उपाध्याय यशोविजयजी “आनंद ठोर ठोर नहीं पाया. आनंद आनंद में समाया ।"5 ऐसा कहा जाता है कि इन दोनों साधकों को दोषदर्शी और दुष्ट लोगों की तरफ से बहुत परेशानी हुई थी । उनके समय में योगी और ज्ञानी की निंदा करने वाले बहुत से छिद्रान्वेषी लोग थे । आनंदघन तो आत्ममस्ती में मग्न थे । इसलिए उन्होंने ऐसे लोगों की जरा भी परवाह न की । वे शायद ही कहीं इस जड़ता और रूढ़िचुस्तता पर प्रहार करते हैं, जबकि यशोविजयजी साधक और सम्प्रदाय में विश्वास करने वाले थे । वे आनंदघन की तरह संप्रदाय के बंधनों से मुक्त नहीं थे । उनका हृदय ऐसी विपत्तियों से कभी-कभी काँप उठता था । परिणाम स्वरूप वे प्रवर्तित विषम परिस्थितियों विषयक वेदनायुक्त उद्गार निकालते हैं : "प्रभु मेरे अइसी आय बनी मन की विथा कुनपे कहिए, . जानो आप धनी; जनम मरण जरा जीउ गई लहई विलगी विपत्ति घनी; तन मन नयन दुःख देखत सुखी नवी एक कनी ।। चित्त तुं भई दुरजन के बचना जैसे अर अगनी । सज्जन कोउ नहि जाके आगे, बात कहूँ अपनी । चउ गई-गमण-भमण-दुःख वारो, बिनति एही सुनी, अविचल संपद जसकुं दीजें अपने दास भनी ।” इस प्रकार उपाध्याय यशोविजयजी निंदक दुर्जनों के विरुद्ध आवाज बुलन्द करते हैं; उस समय आनंदघनजी की निंदा करनेवाले भी थे । यशोविजयजी द्वारा रचित आनंदघन की अष्टपदी की 'कोउ आनंदघन छिद्र ही पेखत' ऐसा आनंदघन के लिए कहा है इस पर से इसका अन्दाज मिलता है । आनंदघनजी और यशोविजयजी दोनों ने जिनस्तवन चौबीसी की रचना की है । आनंदघनजी श्री अजितनाथ जिन स्तवन में कहते हैं : 'तरक विचारें रे वाद परंपरा, पार न पहुँचे रे कोई, अभिमत वस्तु रे वस्तुगते कहे, ते विरलो जगि कोय ।' (स्तवन : 2, गाथा : 4) जबकि श्रीमद् यशोविजयजी महाराज ने सत्तरहवें "पापस्थानक की सज्झाय" में शुद्ध भाषक की बलिहारी बताई है । 'अध्यात्मसार ग्रंथ' में दंभ पर पूरा प्रकरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003220
Book TitleBhartiya Sahitya ke Nirmata Anandghan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumarpal Desai
PublisherSahitya Academy
Publication Year2006
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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