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________________ 48 : आनंदघन बहुत साम्यता दिखाई देती है । श्री आनंदघनजी अलग हैं ऐसी मान्यता की अपेक्षा वे और उपाध्याय श्री यशोविजयजी एक ही हैं, इसे ध्यान में रखकर यदि दोनों की कृतियों का सूक्ष्म निरीक्षण किया जाये तो मेरे मत को पुष्ट करने वाले प्रमाण मिल जायेंगे । मुझे ऐसा लगता है कि पूज्य उपाध्यायजी महाराज को अपने जीवन के अन्तिम दिनों में अपना नाम भी गुप्त रखकर आनंदघन उपनाम धारण करना उचित लगा होगा ।" इस मत की जाँच करें तो सर्वप्रथम तो इसके लिए कोई ठोस सबूत नहीं मिलता । दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उपाध्याय यशोविजयजी की कृतियों की जो सूची मिलती है उसमें उनकी एक कृति के रूप में 'आनंदघन चौबीसी टबाली पत्र ३४' ऐसा स्पष्ट उल्लेख मिलता है । यदि यशोविजयजी ने स्वयं इस कृति की रचना की होती तो ऐसा उल्लेख नहीं मिलता । श्री ज्ञानविमलसूरि के 'आनंदघन चोबीसी' पर लिखे गये टबे (स्तबक) में भी स्पष्ट रूप से लिखा है कि 'आनंदघन उपनामधारी लाभानंदजी रचित ये स्तवन' हैं । इस तरह आनंदघनजी और उपाध्याय यशोविजयजी एक थे ऐसा मानना गलत होगा । इतना ही नहीं, इस मान्यता के अनुसार तो यह मानना पड़ेगा की श्री यशोविजयजी महाराज ने आत्म-प्रशस्ति के लिए 'अष्टपदी' लिखी थी । उपाध्याय यशोविजयजी के व्यक्तित्व के साथ यह बात जरा भी सुसंगत प्रतीत नहीं होती । श्री यशोविजयजी ने अपने जीवन की अंतिम अवस्था में अपना नाम छिपाकर 'आनंदघन' रखा था, इस प्रकार का तर्क श्री साराभाई नवाब करते हैं, परन्तु उपाध्याय यशोविजयजी का वि. सं. १७३४ में डभोई के चौमासे में स्वर्गगमन होने के बाद पाटन संघ के अत्यंत आग्रह से श्री कांतिविजयजी महाराज ने 'सुजसवेली भास' नामक उपाध्याय यशोविजयजी के जीवन-कार्य को दर्शाने वाली पद्य कृति की रचना की । उसमें कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं है । इससे भी विशेष यह है कि उपाध्याय यशोविजयजी के ग्रंथों में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं मिलता । इसलिए आनंदघनजी और यशोविजयजी दोनों एक थे ऐसी श्री साराभाई नवाब की मान्यता निराधार प्रतीत होती है। मस्तयोगी आनंदघनजी और उपाध्याय यशोविजयजी दोनों समकालीनों के बीच बहुत समानता देखने को मिलती है। दोनों अपनी-अपनी साधना की चरमसीमा पर पहुंचे हुए महापुरुष थे । दोनों समर्थ समकालीन थे । कई बार दो समर्थ समकालीन अपने जीवनकाल में कभी भी एक दूसरे से नहीं मिल पाते । भगवान बुद्ध और भगवान महावीर समकालीन थे, एक ही प्रदेश में भ्रमण किया था, इसके बावजूद दोनों का मिलन नहीं हुआ था । परन्तु आनंदघन और यशोविजय के साथ ऐसा नहीं घटित हुआ । इन दोनों महापुरुषों का मिलन हुआ था और वह फलदायी भी साबित हुआ था । आनंदघन की उत्कृष्ट योग अवस्था और आनंदमग्न स्थिति को देखकर उपाध्याय यशोविजयजी ने उनकी स्तुति स्वरूप आनंद के उल्लास से भरपूर “अष्टापदी" की रचना की थी । उपाध्याय यशोविजयजी कहते हैं कि सच्चे 'आनंद' की अनुभूति उसे ही हो सकती है जिसके हृदय में आनंद ज्योति प्रकटित हुई हो । ऐसे 'अचल-अलन' पदों के 'सहज सुख' में आनंदघन मग्न रहते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003220
Book TitleBhartiya Sahitya ke Nirmata Anandghan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumarpal Desai
PublisherSahitya Academy
Publication Year2006
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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