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________________ वि० सं० १०११-१०३३] [ भगवान् पार्थनाथ की परम्परा का इतिहास आचार्य नहीं इससे सूरिजी के चमत्कार ने राजा बड़ा ही आश्चर्यान्वित हुः । संघ मार्ग में त्रागे चल कर पानी के अगाय से दुःखी हुआ। एक सू तालाब को सूरिजी ने विद्याबल से भर दिया । इत्यादि बहुत चमत्कारों के साथ संघ तीर्थ पर पहुँचा । त्रुञ्जय की यात्रा कर गिरनार गये यहां प्रभो को रत्नजड़ित भूषण धारण करवाये । सब लोग नीचे आगे संधपति प्रभु दर्शनार्थ गये तो प्रतिमा पर एक भी भूषण नहीं देखा सूरिजी के पास आकर प्रार्थना करी कि प्रभो! यह आक्षेप संघ पर आवेगा ! सूरिजी ने कहा कि एक मनुष्य आभूषण लेकर आपाट गया है बीसवें दिन पकड़ा जायगा। ऐसा ही हुआ भूषण वापिस लाकर प्रभो को धारण करवाये। सूरिजी वल्लभपुर में पधार कर चातुर्मास किया और वहाँ पर एक अवधूत योगी आया जो कि दुवातिया वाला ब्राह्मण ही था उसने ब्याख्यान की सभा में अपनी दाड़ी के बालों के दो सप बना कर छोड़े पर सूरिजी ने दो नौकुल बना कर छोड़े कि सर्प को पकड़ पछाड़े। एक समय एक साध्वी सूरिजी को वन्दन करने को आती थी अवधूत ने उसे पागल बना दी । जब सूरिजी को ज्ञात हुआ तो आपने घास का एक पुतला बना कर संघ को दिया कि यदि अवधूत न माने तो एक अंगुली काट देना ।-श्रावक पुतला लेकर अवधून के पास गये और उसको बहुत समझाया कि साधी को अच्छी कर दो पर उसने एक भी नहीं सुनी तो फिर श्रावक ने पुतने की एक अंगुली काटी तत्काल अवधून की अंगुली कट गई फिर कहा अभी भी समझ जा वरना सिर काट दिया जायगा । तब अवधूत ने कहा कि १०८ पानी के बड़ों से इसको स्नान करा दो ताकि यह ठीक हो जायगी। इस प्रकार करने से साध्वी ठीक हो गई । इसी प्रकार कवधूत ने कई प्रपंच किये पर सूरिजी के सामने उसकी कुछ भी नहीं चल सकी आखिर राज सभा में ८४ बाद हुए उनमें अवधूत ही पराजय हुआ। सोमकुल रत्न पट्टावली में कवि दीपविजय ने यह भी लिखा है कि सं० १०१० में यशोभद्रसूरि और एक शिव भक्त के आपस में विद्यावाद हुआ इसमें दोनों ने एक-एक मन्दिर उड़ाकर नाडोलाई में ले आये वे दोनों मन्दिर अद्यार्वाय वहाँ विद्यमान हैं इत्यादि सूरिजी के चमत्कार अपार हैं और इन विद्या चमत्कारों से एक तो जैनधर्म की बड़ी भारी प्रभावना की और दूसरा अवधूत योगियों के, जैनधर्म पर बहुत घातिक आक्रमणों से जैनधर्म एवं जैन संघ की रक्षा भी की। आचार्य यशोभद्रसूरि अपने सदुपदेश एवं आत्मीय चमत्कारों से कई राजाओं एवं साधारण जनता को जैनधर्म में दीक्षित कर महाजन संघ की खूब वृद्धि की । एक समय आप नारदपुरी में पधार कर राव लाखण के लघु भ्राता रावधा को उपदेश देकर जैनी बनाया। रावदधा की संतान भाशापरी माता के भंडार का काम करने से वे आगे चल कर भंडारी कहलाये । इसी प्रकार गुगलिया, धारोला, कांकरिया दुधेड़िया, बोहरा, चतुर, शिशोदियादि १२ जातियों के आदि पुरुषों को आचार्य यश भद्रसूरि ने उपदेश देकर जैनधर्मी श्रावक बनाये थे। जब सूरिजी ने अपने ज्ञान द्वारा अपनी आयुष्य शेष छः मास का रहा जाना तब श्रीसंघ के समीक्ष आलोचन, निंदवना कर शुद्ध भावों से निशल्य हो गये तथा श्रीसंघ को कहा कि मेरे मरने के बाद मेरे मस्तक की खोपड़ी फोड़ तोड़ के चूर चूर कर डालना नहीं तो कहीं मेरी खोपरी अवधूत के हाथ लग गई तो जैनधर्म का काफी नुकसान करेगा । इत्यादि कह कर प्राचार्य यशोभद्रसूरि ने समाधि पूर्वक स्वर्ग के अतिथि बन गये। पीछे से श्रीसंघ ने गुरु आज्ञा का पालन किया बाद में अवधत आया पर उसके मनोरथ सफल हो नहीं कारण उसके आने के पूर्व ही गुरु आज्ञा का पालन श्रीसंघ ने कर दिया था। . आचार्य यशोभद्रसूरि जैसे संसार में एक महान् प्रतिभाशाली एवं चमत्कारी प्राचार्य हुए हैं आपके अलौकिक जीवन के लिये कई महात्मात्रों ने विस्तृत संख्या में ग्रन्थों का निर्माण किया था पर अभी तक वह १४०४ भंडारी जाति की उत्पति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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