SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 349
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वि० सं० ६६०-६८० ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास चातुर्मास समाप्त होते ही सूरिजी ने विहार कर दिया । यद्यपि शाकम्भरी निवासियों के लिये आचार्य देव का विहार असम्भव अवश्य था किन्तु, निस्पृहो, निर्मन्थों के आचार व्यवहार विषयक विशुद्ध नियमों में खलल पहुँचा कर जबर्दस्ती रोकना भी कर्तव्य विमुख था अतः भक्ति से प्रेरित हो कितनेक मनुष्यों ने बहुत दूर तक आचार्यश्री की साथ रह कर अपूर्व सेवा का अपूर्व लाभ लिया । पट्टावली कारों ने प्राचार्यदेव के प्रत्येक चतुर्मास का इसी तरह विशद विवेचन किया है किन्तु ग्रंथ कलेवर की वृद्धि के भय से हम इतना विस्तृत विवेचन नहीं करते हुए इतना लिख देना ही पर्याप्त समते हैं कि आप का बिहार मरुधर से गुर्जर, सौराष्ट्र, कच्छ, सिंध, पंजाब, कुरु, शूरसेन, मत्स, बुंदेल खंड, मालवा और मेदपाट होता था । आप क्रमशः हर एक प्रान्तों में बिहार करते हुए प्रचार के लिये प्रान्त २ में भेजे हुए शिष्यों को प्रोत्साहित करते रहते थे। जगह जगह पर श्रापश्री के चमत्कारिक जीवन का प्रभाव जैन, जैनेतर समाज पर बहुत ही पड़ता था । बाल ब्रह्मचारी होने से अखण्ड ब्रह्मचर्य के तेज के साथ ही साथ तप, संयम ज्ञान की प्रखर दीप्ति वादियों के नेत्रों में चकाचौंध सी पैदा कर देती थी । वादी श्राचार्य श्री के श्रागमन को सुनते ही हतोत्साहित हो इत उत पलायन कर देते थे । आपकी इस प्रखर प्रतिभा सम्पन्न प्रौढ़ विद्वत्ता ने कई राजा महाराजाओं को आकर्षित किया। उन लोगों ने भी सूरीश्वरजी के व्याख्यान श्रवण मात्र से प्रभावित हो, जैनधर्म के रहस्य को समझ जैनधर्म को स्वीकार कर लिया । इस तरह सूरिजी ने जैनधर्म का खूब विस्तृत प्रचार किया । आपने अपने बीस वर्ष के शासनकाल में ३०० से भी अधिक नर नारियों को श्रमण दीक्षा दे आत्म कल्याण के निवृत्तिमय पथ के पथिक बनाये । लाखों मांस मदिरा सेवियों का उद्धार कर जैनियों की एवं महाजन संघ की संस्था में वृद्धि की। कई मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठाएं करवा कर जैनधर्म की नींव को ढ़ एवं जैन इतिहास को अमर किया । आपश्री के जीवन की विशेषता यह थी कि उस समय के चैत्यवासियों के साम्राज्य में भी आपने अपने श्रमण संघ में श्राचार विचार विषयक किसी भी प्रकार की शिथिलता रूप चोर का प्रवेश नहीं होने दिया । नियम विघातक वृद्धि को न आने में खास कारण आपश्री के विहार क्षेत्र की विशालता एवं मुनियों को मुनित्व जीवन के कर्तव्य की ओर हमेशा आकर्षित करते रहने की कुशलता ही थी । विहार की उम्रता से साधु समाज के चरित्र में किसी भी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं हुई और कोई क्षेत्र भी मुनियों के व्याख्यान श्रवण के लाभ से वंचित नहीं रहा । आचार्यश्री समय २ पर मुनियों को इधर उधर प्रान्तों में प्रचारार्थ परिवर्तित कर देते कि जिससे उनको प्रान्तीय मोह व साम्प्र|दायिकता की इच्छा जागृत न हो सकती थी । आपके इस कठोर निरीक्षण ने मुनियों के जीवन को एक दम आदर्श बना दिया था | I आचार्यश्री कक्कसूरिजी म० युगप्रधान एवं युगप्रवर्तक आचार्य थे। उस समय आपश्री के पास जितनी श्रमण संख्या थी उतनी विशाल संख्या किसी दूसरे गच्छ या सम्प्रदाय में नहीं थी । जितना दीर्घ विहार आपका और आपके आज्ञानुयायी साधुओं का था उतना विशाल विहार क्षेत्र व उप्रविहार दूसरों का नहीं था । जन समाज पर जितना प्रभाव आप का पड़ता था उतना अन्य का नहीं । ज्ञात होता है कि 'श्रमणों की उदय उदय पूजा न होगी' यह वीर परम्परा के श्रमणों पर पूरा २ प्रभाव डाल चुकी थी परन्तु श्राचार्य कक्कसूरि तो थे भग जब हम कल्पसूत्र के भस्मगृह की ओर देखते हैं १०७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only सूरीश्वरजी के शासनकी बि www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy