SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य कक्कसूरि का जीवन ] [ ओसवाल सं. १०६०-१०८० लोगों ने भी ज्ञानार्चना का लाभ लेकर अतुल पुण्य सम्पादन किया । उक्त द्रव्य से आगम व जैनसाहित्य के अमूल्य प्रन्थों को लिखवा कर ज्ञान भण्डार में स्थापित किया । इस प्रकार ज्ञान के महात्म्य को देख जनता वेद पुराणों के महोत्सव को भूल गई थी। व्याख्यान में श्रीभगवतीसूत्र प्रारम्भ हुआ । श्रोतागण बड़ी रुचि के साथ वीरवाणी के अमृत रस का आस्वादन करने में अतृप्त की भांति उत्कंठित एवं लालायित रहते थे । आचार्यदेव ने श्रीभगवतीजी के श्रादि सूत्र 'चलमाणे चलिए' का उच्चारण किया और उसी के विवेचन में चातुर्मास समाप्त कर दिया पर 'चलमाणे चलिए' का अर्थ पूरा नहीं हो सका । कारण सूरिजी कर्म सिद्धान्त के प्रौढ़ विद्वान एवं मर्मज्ञ थे अतः वस्तुत्व का निरुपण करने में परम कुशल या सिद्धहस्त थे। आपश्री ने कर्म की व्याख्या करते हुए कर्म के परमाणु और उसके अन्दर रहे हुए वर्ण, गन्ध, रस स्पर्श की मंदता, तीव्रता, कमों की वर्गणा, कंडक, स्पर्द्ध, निसर्ग, कर्म बंधके हेतु कारण, परिणामों की शुभाशुभ धारा, लेश्या, के अध्यवसाय से रस व स्थिति, निधंस, निकाचित अबाधाकाल, कमों का उदय (विपाकोदय-प्रदेशोदय) कमों का उदवर्तन, अपवर्तन, कर्मों को उदीरणा, कमों का वेदना (भोगना), परिणामों की विशुद्धता, आत्म प्रदेशों से कर्मों का चलना, इसकी अकाम वेदना सकाम निर्जरा होना, उर्ध्वमुखी, अर्धामुखी अकाम तथा देश या सर्व सकाम निर्जरा वगैरह का इसकदर वर्णन किया कि शाकम्भरी नरेश को ही नही अपितु व्याख्यान का लाभ लेने वाली सकल जन मण्डली को जैन दर्शन के एक मुख्य सिद्धान्त कर्मवाद का अपूर्व ज्ञान हासिल हो गया जैनधर्म के कर्म सिद्धान्त की उनके ऊपर स्थायी एवं अमिट छाप पड़ गई । वास्तव में बात भी ठीक है कि जब तक कर्मों का स्वरूप एवं उसके साथ संबन्ध रखने वाली सकल बातों का सविशद ज्ञान न हो जाय बहां तक कर्म बन्धन से डरने एवं पूर्व वृत कर्मों की निर्जरा करने के भावों का प्रादुर्भाव होना नितान्त असम्भव है । अस्तु, आचार्यश्री ने चातुर्मास की इस दीर्घ अवधि में कर्म सिद्धान्त का ऐसा मार्मिक विवेचन किया कि उपस्थित लोगों के हृदय में एकदम वैराग्य का सञ्चय हो गया । उन्होंने तत्क्षण ही आचार्यश्री से स्वशत्यनुकूल त्याग-प्रत्याख्यान किये । शास्त्रों में श्रद्धा मूल ज्ञान बतलाया है, यह ठीक एवं यथार्थ ही है । केवल चरित्रानुवाद ( कथानक या किसी का चरित्र ) सुन लेने से जैन दर्शन के तात्विक सिद्धान्तों का ज्ञान नहीं होता है, उसके लिये तो आवश्यकता है गहरे अभ्यास, मनन एवं चिन्तवन की । अतः जब तक ज्ञान का सद्भाव नहीं तब तक श्रद्धा का अंकुर नहीं और श्रद्धा के अभाव में जन्म मरण से छूटना भी असम्भव अतः सबसे पहले आवश्यकता है ज्ञान की प्रौढ़ताकी, कारण-शास्त्रकार भी फरमाते हैं कि"पढ़मं नाणं तओ दया एवं चिट्ठइ सब संजए । अन्नाणी किं काही किंवा नाही सेय पावगं ॥" ___ ज्ञानाभाव में कर्तव्याकर्तव्य का दीर्घ विचार अज्ञानी जीव कर ही नहीं सकता है अतः ज्ञानाराधन करके ही दर्शनाराधना की जा सकती है । इस तरह के व्याख्यान प्रवाह में प्रवाहित जनता में से कितनेक सत्यग्रहण पटुव्यक्तियों ने एवं गव गेंदा वगैरह श्रात्म कल्याण इच्छुक भावुकों ने जैनधर्म को स्वीकार कर अपने आपको कृतकृत्य किया । सूरिजी के तो ये सबके सब परम भक बन गये । गुरु, धर्म पर अटूट श्रद्धा थी इसका पता भी सहज ही में लग जाता है वे बात ही बात में देव, गुरु, धर्म ले निमित्त लाखों रुपये नहीं अपना सर्वस्व होमर्पण कर देते थे। आज तो उन पुण्यात्माओं के कार्यों का अनुमोदन करने मात्र से ही अनुमोदन कर्ता की आत्मा का कल्याण हो जाता है। - आचार्य श्री के व्याख्यान की शैली १०७७ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy