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________________ आचार्य कक्कसरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ८४०-८८० ___सेठानी-मैं देखती हुँ कि लोग देव देवियों को मनाते है और कई लोग अपनी आशा को पूर्ण भी करते है आपको भी इस प्रकार करना चाहिये । सेठजी-आप हमेशा व्याख्यान सुनते हो सिवाय पूर्व कर्मों के कुच्छ नहीं हो सकता है । यदि देवदेवी कुच्छ दे सकते हो तो संसार में कोई दुःखी रह ही नहीं सके ? पर जो होता है वह सब पूर्व कर्मों के अनुसार ही होता है। सेठानी- हाँ कर्म तो है ही पर केवल कर्मों पर ही बैठ जाने से कार्य नहीं बनता है पर साथ में उद्यम भी तो करना चाहिये ? ____ सेठजी-मैंने अभी चतुर्थव्रत नहीं लिया है जो तकदीर में लिखा होगा वो होजायगा । सेठानी-पर देव देवियों को मनाना भी तो एक प्रकार का उद्यम ही है । सेठजी-सेठानीजी देव देवी खुद निःसन्तान है उनके पास बेटा बेटी जमा नहीं पड़ा है कि मानता करने वालों को देदे । सेठानी-मैंने कई लोगों को देखा है कि देवताओं ने भक्त लोगों की अाशा पूर्ण की है। सेठजी-मैं तो एक अरिहन्त देव को ही देव समझता हूँ और उनके सिवाय किसी को भी शिर नहीं मुकाता हूँ। सेठानी-कहाँ जाता है कि अरिहन्त देव सर्व कार्य सिद्ध करने वाले है तो आप उनसे ही प्रार्थना क्यों नहीं करते हों ? सेठजी-सेठानीजी आपने मन्दिर उपाश्रय जा जा कर वहां के पत्थर घीस दिये है पर अभी तक आप जैन धर्म के मर्म को नहीं समझे है। वीतराग देव की उपासना केवल जन्म मरण मिटा कर मोक्ष के लिये ही की जाति है । फिर भी वीतराग तो वीतराग ही है वे न कुच्छ देते है और न कुच्छ लेते है ! उनकी उपासना से अपने चित की विशुद्धी होती है, जिनसे कर्मों की निजग होकर मोक्षको प्राप्ती होती है यदि कोई धर्म का मर्म न जान ने वाला वीतराग से धन पुत्र मांगता है उसे लोकोत्तर मिथ्यात्व ल ता है इस बात को आप अच्छी तरह से समझ कर कभी भूल चूक से धर्म करनी करके लौकीक सुख की याचना तो क्या पर भावना तक भी नहीं करना।। सेठानी-खैर वीतराग नहीं तो दूसरे भी तो अधिष्टायकादि बहुत देव देवियां है। सेठजी-मैंने कह दिया था कि विधर्मी देव देवियों को शिर झुकाने में मिथ्यात्व लगता है उस मिथ्यात्व से संसार में भ्रमन करना पड़ता है जिसको न तो पति बचा सकता है न पत्नि और न पुत्रादी कोई भी नहीं बचा सकता है अतः आप कमों पर विश्वास कर संतोष ही रखे। सेठानी -- परन्तु पुत्र बिना पिच्छे नाम कौन रखेगा। और इस सम्पति का क्या होगा ? सेठजी-नाम है उसका एक दिन नाश भी है सेठानी जी ! अपन तो किस गीनती मे है पर बड़े बड़े अवतारी पुरुष हुए है उनका भी वंश नही रहा है यदि नाम रखना हो तो कोई ऐसा काम करों कि जिससे नाम अमर हो जाय और इसके लिये या तो भीतड़ा मन्दिर या गितड़ा (प्रन्थ) हैं ! इन दो बातों से ही नाम रह सकता है। सेठानी -- ठीक है मन्दिर बनाना और ग्रन्थ लिखाना ये तो अपने स्वीधीनता के काम है चाहे आज सेठजी और सेठानी का संवाद ] ८४९ Jain Education in 2019 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003212
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages842
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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