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________________ ९७ क्योंकि तुमको श्रावकसूत्र वांचे तो अनंत संसारी हो ऐसे कहते हो" उत्तर - श्रावक को सिद्धांत नहीं वांचने सो मनुष्य आश्री है, देवता आश्री नहीं जो ढूंढिये सम्यग्दृष्टि | देवता और मनुष्य को श्रावक के भेद में एक सरीखे मानते हैं तो देवता की की जिन पूजा क्यों नहीं मानते हैं ? | २३. जेठमल लिखता है कि सूर्याभ ने धर्मव्यवसाय ग्रहण किये पीछे बत्तीस वस्तु पूजी हैं । इस वास्ते जिनप्रतिमा पूजने संबंधी धर्मव्यवसाय कहे हैं ऐसे नहीं समझना " । उत्तर- सूर्याभने जो धर्मव्यवसाय ग्रहण किये हैं सो जिनप्रतिमा पूजने निमित्त के ही हैं । जो कि उसने प्रथम जिनप्रतिमा तथा जिन दाढा पूजे । पीछे अन्य वस्तु पूजी हैं । परंतु उससे कुछ बाधक नहीं हैं, क्योंकि मनुष्यलोक में भी जिनप्रतिमा की पूजा के बाद इसी व्यवसाय से अन्य शासनाधिष्ठायक देवदेवी की पूजा होती है । २४. मूढमति जेठमल ने सिद्धायतन में जो प्रतिमा हैं सो अरिहंत की नहीं ऐसे | सिद्ध करने को आठ कुयुक्तियां लिखी हैं। उनके उत्तर - (१) श्रीजीवाभिगम में "रिठ्ठमया मंसू" यानि रिष्टरत्नमय दाढी मूछ कही हैं और श्रीरायपसेणी में नहीं कही तो इस से प्रतिमा में क्या झगडा ठहरा ? यह भूल तो जेठमल ने सूत्रकार की लिखी है ! परंतु जेठमल में इतनी विचारशक्ति नहीं थी कि जिस से विचार कर लेता कि सूत्र की रचना विचित्र प्रकार की । किसी में कोई विशेषण होता है, और किसी में नहीं होता है । (२) सद्धायतन की जिनप्रतिमा को "कणयमया चुचुआ" कंचनमय स्तन कहे हैं इस में जेठमल लिखता है कि "पुरुष को स्तन नहीं होते हैं । श्रीउववाईसूत्रमें भगवंत के | शरीर का वर्णन किया है वहां स्तनयुगल का वर्णन नहीं किया है" उत्तर- सूत्र में किसी जगह कोई बात विस्तार से होती है और कोई बात विस्तार से नहीं होती | है, परंतु इस से कोई झगडा नहीं पडता है । जेठमल ने लिखा है कि "तीर्थंकर, च क्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव तथा उत्तम पुरुष वगैरह को स्तन नहीं होते हैं" जेठमल | का यह लिखना बिलकुल मिथ्या है, क्योंकि पुरुष मात्र हृदय के भाग में स्तन | का दिखाव होता है, और उस से पुरुष का अंग शोभता है । जो ऐसे न होवे तो | साफ तखते सरीखा हृदय बहुत ही बूरा दीखे । इस वास्ते जेठमल की यह कुयुक्ति बनावटी है; और इस से यह तो समझा जाता है कि जेठे की छाती साफ । तखते सरीखी होगी । १ श्रावक को जो सूत्र वांचने का निषेध है सो आचारांग, सूयगडांग, ठाणांग, समवायांग, भगवती प्रमुख सिद्धांत वांचने का है। परंतु सर्वथा धर्मशास्त्र के वांचने का निषेध नहीं है श्रीव्यवहारसूत्र में लिखा है कि इतने वर्ष की दीक्षा पर्याय होवे तो आचारांग पढे, इतने की होवे तो सूयगडांग पढे इत्यादि कथन से सिद्ध होता है कि आचारांगादि सूत्रों के पढ़ने का गृहस्थ को निषेध है, अन्य प्रकरणादि धर्मशास्त्रों के पढ़ने का निषेध नहीं इस वास्ते देवता के पढे धर्मशास्त्रों में शंका करनी व्यर्थ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only ww www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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