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________________ सम्यक्त्वशल्योद्धार २०. जेठमल लिखता है कि "एक वक्त राज्याभिषेक के समय प्रतिमा पूजते है परंतु पीछे भव पर्यंत प्रतिमा नहीं पूजते हैं" उत्तर-सूर्याभने पूर्व और पीछे हितकारी क्या है ? ऐसे पूछा तथा पूर्व और पीछे करने योग्य क्या है ? ऐसे भी पूछा, जिस के जवाब में उस के सामानिक देवताने जिनप्रतिमा की पूजा पूर्व और पीछे हितकारी और करने योग्य कही जो पाठ श्रीरायपसेणी सूत्र में प्रसिद्ध हैं। इस वास्ते सूर्याभ देवता ने जिनप्रतिमा की पूजा नित्यकरणी तथा सदा हितकारी जान के हमेशा की ऐसे सिद्ध होता है। २१. जेठा लिखता है कि "सूर्याभने धर्मशास्त्रा पढे ऐसे सूत्रो में कहा है सो कुल धर्म के शास्त्र समझना क्योंकि जो धर्मशास्त्र हो तो मिथ्यात्वी और अभव्य क्यों वांचे ? कैसे सद्दहे ? और जिनवचन सच्चे कैसे जाने ?" उत्तर-सूर्याभ ने वांचे सो पुस्तक धर्मशास्त्र की ही है ऐसे सूत्रकार के कथन से निर्णय होता है 'कुल' शब्द जेठे ने अपने घरका पाया है । सूत्र में नहीं है और लौकिक में भी कुलाचार की पुस्तकों को धर्मशास्त्र नहीं कहते हैं । धर्मशास्त्र पढ़ने का अधिकार सम्यग्दृष्टि को ही है, क्योंकि सर्व देवता पढ़ते हैं ऐसा किसी जगह नहीं कहा है । तो अभव्य और मिथ्या दृष्टि को पढ़ना और उन के ऊपर श्रद्धान करना कहां रहा ? कदापि जेठा मनःकल्पना से कहे कि वे वांचते हैं| परन्तु श्रद्धान नहीं करते हैं । ऐसे तो ढूंढिये भी जैनशास्त्र वांचते हैं परंतु नाज्ञा मताबिक उन की श्रद्धा नहीं करते हैं । उलटे पढने के बाद अपना कुमत स्थापन करने वास्ते भोले लोगों के आगे विपरीत प्ररूपणा कर के उन को ठगते हैं परंतु इस से जैनशास्त्र कुलधर्म के शास्त्रा नहीं कहावेंगे। २२. जेठमल कहता है कि "सम्यग्दृष्टि देवता सिद्धांत पढ़ के अनंत संसारी क्यों हो? | श्री रायपसेणीसूत्र का पाठ यह है:"तएणं तस्स सूरियाभस्स पंचविहाए पजत्तिए पजत्तिभावं गयस्स समाणस्स ईमे एयारूवे अब्भत्थिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पजित्था किं मे पुव्विं करणिज कि मे पच्छा करणिजं कि मे पुव्विं सेयं किमे पच्छा सेयं किंमे पुव्विं पच्छावि हियाए सुहाए खमाए णिस्सेसाए अणुगामित्ताए भविस्सइ तएणं तस्स सूरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोववण्णगा देवा सूरियाभस्स देवस्स इमेयारूवमब्भत्थियं जाव समुप्पण्णं समभिजाणित्ता जेणेव सूरियामे देवे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सूरियाभं देवं करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट जएणं विजएणं वद्धावेंति रत्ता एवं वयासी एवंखलु देवाणुप्पियाणं सूरियाभे विमाणे सिद्धाययणे अठ्ठसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेह पमाणमेत्ताणं सण्णिसित्तं चिठ्ठति सभाएणं सुहम्माए माणवए चेइए खंभे वइरामए गोलवट्ट समुग्गएबहूओ जिणसक्कहाओ सण्णिखित्ताओ चिठ्ठति ताओण देवाणुप्पियाणं अण्णेसिं च बहूणं वेमाणियाणं देवाणय देवीणय अञ्चणिजाओ जाव वंदणिजाओ णमसणिज्जाओ पूयणिजाओ सम्माणणिजाओ कल्लाण मंगल देवय चेइयं पजुवासणिजाओ त एयणं देवाणुप्पियाणं पुव्वि करणिजं एयणं देवाणुप्पियाणं पच्छा करणिज्जं एयणं देवाणप्पियाणं पुव्वि सेय एयणं देवाणुप्पियाणं पच्छा सेयं एयणं देवाणुप्पियाणं पुव्विं पच्छावि हियाए सुहाए खमाए णिस्सेसाए अणुगामित्ताए भविस्सई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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