SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यक्त्वशल्योद्धार I अरिहंत के सिवाय अन्य देवों के पास भी कहा जाता है । सो यह लेख जैनशैली से | सर्वथा विपरीत है । जैनमत के किसी भी शास्त्र में अरिहंत और अरिहंत की प्रतिमा | सिवाय अन्य देव के आगे नमुत्थुणं कहना, या किसी ने कहा लिखा नहीं है । जेठमल इस संबंध में जो जो दृष्टांत लिखे हैं और जो जो पाठ लिखे हैं उनमें अरिहंत या अरिहंत की प्रतिमा के सिवाय किसी अन्य देव के आगे किसीने नमुत्थुणं कहा हो ऐसा पाठ तो है ही नहीं, परंतु भोले लोगों को फंसाने और अपने कुमत को स्थापन करने के लिये विना ही प्रयोजन सूत्रपाठ लिख के पोथी बडी की है। इस से मालूम होता है कि जेठमल महामिथ्या दृष्टि, और मृषावादी था । और उस ने द्रौपदीकृत अरिहंत की प्रतिमा की पूजा लोपने के वास्ते जितनी कुयुक्तियां लिखी हैं सो सर्व अयुक्त और मिथ्या है । ८४ तथा जेठमल जिनप्रतिमा को अवधिजिन की प्रतिमा ठहराने वास्ते कहता है कि "सूत्र में अवधिज्ञानी को भी जिन कहा है । इस वास्ते यह प्रतिमा अवधि जिन की संभव होती है" उत्तर- सूत्र में अवधि जिन कहा है सो सत्य है परंतु 'नमुत्थुणं' केवली अरिहंत | या अरिहंत की प्रतिमा सिवाय अन्य किसी देवता के आगे कहे का कथन सूत्र में किसी | जगह भी नहीं है । और द्रौपदी ने तो 'नमुत्थुणं कहा है । इस वास्ते वह प्रतिमा केवली अरिहंत की ही थी, और उस की ही पूजा महासती द्रौपदी श्राविका ने की है । फिर जेठमल कहता है कि "अरिहंत ने दीक्षा ली तब घर का त्याग किया है । इस लिये उस का घर होगा नहीं" उत्तर - मालूम होता है कि मूर्खों का सरदार जेठमल | इतना भी नहीं समझता है कि भावतीर्थंकर का घर नहीं होता है । परंतु यह तो स्थापना | तीर्थंकर की भक्ति निमित्त निष्पन्न किया हुआ घर है । जैसे सूत्रों में सिद्ध प्रतिमा का | आयतन यानि घर अर्थात् सिद्धायतन कहा है वैसे ही यह भी जिन घर है, तथा सूत्रों में देवछंदा कहा है । इस वास्ते जेठमल की सब कुयुक्तियां झूठी हैं । तथा इस प्रसंग में जेठमल ने विजय चोर का अधिकार लिख के बताया है कि | "विजय चोर राजगृही नगरी में प्रवेश करने के मार्ग, निकलने के मार्ग, मद्यपान करने के मकान, वेश्या के मकान, चोरों के ठिकाने, दो, तीन तथा चार रास्ते मिलने वाले मकान, नागदेवता के, भूत के तथा यक्ष के मंदिर इतने ठिकाने जानता है । ऐसे सूत्र में कहा है तो राजगृही में तीर्थंकर के मंदिर होवें तो क्यों न जाने ?" उत्तर प्रथम तो यह दृष्टांत ही निरुपयोगी है, परंतु जैसे मूर्ख अपनी मूर्खता दिखाये विना ना रहे वैसे जेठमलने भी निरुपयोगी लेख से अपनी पूर्ण मूर्खता दिखाई है । क्योंकि यह दृष्टांत | बिलकुल उस के मत को लगता नहीं है । एक अल्पमति वाला भी समझ सकता है, कि इस अधिकार में चोर के रहने के, छिपने के, प्रवेश करने के, निकलने के, जो जो ठिकाने तथा रास्ते हैं सो सर्व विजय चोर जानता था ऐसे कहा है । सत्य है क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy