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________________ ८३ का रिवाज बहुत वर्षों से बंद हो गया है। परंतु हाल में वस्त्र के बदले जिनप्रतिमा को सोना, चांदी, हीरा, माणिक प्रमुख की अंगीयां पहिनाई जाती हैं । तथा जामा और कबजा - फतुई कमीज - प्रमुख के आकार की अंगीयां होती हैं। जिन को देख के सम्यग्दष्टि जीव जिनको कि जिनदर्शन की प्राप्ति होती है, उन को साक्षात् वस्त्र पहिनाये ही प्रतीत होते हैं । परंतु महा मिथ्यादृष्टि ढूंढिये जिन को कि पूर्वकर्म के आवरण से जिनदर्शन होना महा दुर्लभ है। उन को इस बात की क्या खबर हो !! उन को खोटे दूषण निकालने की ही समझ है, तथा हाल में सत्रहभेदी पूजा में भी वस्त्र युगल प्रभु के समीप रखने में आते हैं । हमेशा शुद्ध वसा से प्रभु का अंग पूजा जाता है । इत्यादि कार्यों में जिनप्रतिमा के उपभोग में वस्त्र भी आते हैं । तथा इस प्रसंग में जेठमल ने लिखा है कि "जिस रीति से सूर्याभ ने पूजा की है उस रीति से द्रौपदी ने की" तो इस से सिद्ध होता है कि जैसे सूर्याभ ने सिद्धायतन में शाश्वती जिनप्रतिमा पूजी है वैसे इस ठिकाने द्रौपदी की की पूजा भी जिनप्रतिमा की ही है। और जैठमल ने भद्रा सार्थवाही की की अन्य देव की पूजा को द्रौपदी की की पूजा के सदृश होने से द्रौपदी की पूजा भी अन्य देव की ठहराई है। परंतु वह मूर्ख सरदार इतना भी नहीं समजता है कि कुछ बातों में एक सरीखी पूजा हो तो भी उसमें बाधा नहीं है। जैसे हाल में भी अन्य दर्शनी श्रावक की कितनीक रीति अनसार अपने देव की पूजा करते हैं। वैसे इस ठिकाने भद्रा सार्थवाही ने भी द्रौपदी की तरह पूजा की है तो भी प्रत्यक्ष मालूम होता है कि द्रौपदीने 'नमुत्थुणं' कहा है । इस वास्ते उस की पूजा जिनप्रतिमा की ही है, और भद्रा सार्थवाही ने `नमुत्थुणं' नहीं कहा है ।। इस वास्ते उन की की पूजा अन्य देव की है। तथा द्रौपदी ने 'नमुत्थुणं' जिनप्रतिमा के सन्मुख कहा है यह बात सूत्र में है, और जेठमल यह बात मंजूर करता है, परंतु यह प्रतिमा अरिहंत की नहीं ऐसा अपना कुमत स्थापन करने के वास्ते लिखता है कि "अरिहंत के सिवाय दूसरों के पास भी 'नमुत्थुणं' कहा जाता है । गोशाले के शिष्य गोशाले को नमुत्थुणं कहते थे; तथा गोशाले के श्रावक षडावश्यक करते थे। तब गोशाले को नमुत्थुणं कहते थे" यह सब झूठ है, क्योंकि नमुत्थुणं के गुण किसी भी अन्य देव में नहीं है, और न किसी अन्य देव के आगे नमत्थणं कहा जाता है। तथा न किसी ने अन्यदेव के आगे नमत्थणं कहा है ।। तो भी जेठमल ने लिखा है कि "अरिहंत के सिवाय दूसरे (अन्य देवों) के पास भी नमुत्थुणं कहा जाता है ।" तो इस लेख से जेठमल ने वीतराग देव की अवज्ञा की है, क्योंकि यह लिखने से जेठमलने अन्य देव और वीतराग देव को एक सरीखे ठहराया है। हा कैसी मूर्खता ! अन्य देव और वीतराग जिन में अकथनीय फरक है । अपना मत स्थापन करने के वास्ते उन को एक सरीखे ठहराता है और लिखता है कि 'नमुत्थुणं' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003206
Book TitleSamyaktva Shalyoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Punyapalsuri
PublisherParshwabhyudaya Prakashan Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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