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________________ है। मेरे मन में एक इच्छा है कि मरने से पूर्व मैं अपने परम दयालु माता-पिता के अंतिम दर्शन कर लूं.''यदि मेरी यह अंतिम अभिलाषा आपको मान्य न हो तो आपको, मेरी प्रेममयी मां को और अपरमाता को मेरा अंतिम नमस्कार है। मैं सबसे क्षमायाचना करती हूं।' __ महाराजा ने तत्काल दासी की ओर देखकर कहा---'ओह ! कितनी माया होती है नारी में ! आज तक उसके हृदय को कोई नहीं जान पाया। पापिन के हृदय में कितना विष भरा है और वाणी में कितना अमृत भरा है। वाणी और हृदय में इतनी विषमता होती है, वह अत्यन्त दुष्ट होती है । वेगवती ! तू राजकन्या से कह देना-स्वयं का पाप स्वयं से अज्ञात नहीं रहता "मुझे या अन्य किसी को नमस्कार करने की कोई जरूरत नहीं है। मुझे अपना कलंकित मुंह मत दिखाना । नगररक्षक जैसा कहे, वैसे करना है।' ___ महाराज के इन शब्दों से वेगवती दासी का हृदय भर आया। वह वहीं रो पड़ी। उसने मन-ही-मन सोचा, क्या मां-बाप इतने निर्दय हो सकते हैं ? वह बोली- 'कृपावतार! यदि यही आपका अंतिम आदेश हो और यदि आप राजकुमारी का मुंह देखना ही नहीं चाहते तो राजकन्या ने एक प्रार्थना की है कि गोला नदी के किनारे 'पातालकूप' नाम का एक कूप है । वह अत्यन्त गहरा और अंधकारमय है। राजकन्या उस कुएं में गिरकर प्राण-विसर्जन करना चाहती हैं । यह उनकी इच्छा है। यदि आप इस इच्छा को पूरी करना चाहें तो नगररक्षक को तत्संबंधी आदेश अवश्य दें !' ___ इतना कहकर दासी वेगवती भारी हृदय से वहां से चली गयी। उसने महाराजा के उत्तर की प्रतीक्षा भी नहीं की। ___ महामंत्री ने कहा--'महाराज ! मृत्युदंड प्राप्त व्यक्ति की अंतिम इच्छा को पूरी करना न्याय संगत है।' _.'किन्तु मलया वध के बदले ऐसी मृत्यु को क्यों चाहती है ? यह बात मेरी समझ में नहीं आती।' ___'महाराज ! मलयासुंदरी नहीं चाहती कि कोई दूसरा व्यक्ति उसका वध करे। वह अपने हाथों से स्वयं मृत्युदंड भोगना चाहती है।' 'परन्तु वह कप तो अत्यन्त भयंकर है'-रानी चंपकमाला ने कहा। 'महादेवी ! जिसे मौत का भय नहीं होता उसके लिए कोई भी वस्तु भयंकर नहीं होती।' महामंत्री ने कहा। इधर वेगवती मलया के पास पहुंची और उसने सारी बात कह सुनायी। मलयासुंदरी महाराज का उत्तर सुनकर निःश्वास डालती हुई बोली-'वेगवती ! तू क्यों रो रही है ? जल्दी या देरी से सबको मृत्यु का वरण करना ही होगा। मेरे पापकर्मों का विपाक है कि मुझे यह अनिष्ट प्रकार की मृत्यु मिल रही है." महाबल मलयासुन्दरी ८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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