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________________ ३० | चिन्तन के विविध आयाम : खण्ड १ जाता है । ये दोनों शक्तियाँ स्वरूप की दृष्टि से ब्रह्म से अभिन्न हैं, परन्तु स्थूल अवस्था में उससे भिन्न भी हैं । शक्तिमान ब्रह्म चित्-अचित् शक्तियों में परिणाम होने के बावजूद भी वह स्वरूप से अपरिणत बना रहता है । उसकी अपरिणत स्वरूप शक्ति विशेष निमित्त कारण है और चित् अचित् शक्तियों से उस शक्ति का योग होने पर वही ब्रह्म उपादान कारण भी है । अतः ब्रह्म अभिन्न निमित्तोपादान कारण है। प्रस्तुत दर्शन का निम्बार्क और वल्लभ दर्शन के साथ अत्यन्त निकट का सम्बन्ध है । शैवाचार्य श्रीकण्ठ ने ब्रह्मसूत्र की व्याख्या करते हुए ब्रह्म की सच्चिदानन्द शिव रूप में स्थापना की है। वह शिव, शर्व, भव, महेश्वर, ईशान प्रभृति अनेक नामों से जाना और पहचाना जाता है । वह ईश्वर केवल निमित्त कारण नहीं अपितु उपादान और निमित्त उभय स्वरूप है । इस प्रकार उन्होंने नकुलीश, पाशुपत और न्यायवैशेषिक आदि महेश्वर निमित्त कारणवादियों से अपना मत पृथक् प्रदर्शित किया है। इनके ब्रह्मसूत्र पर भाष्य का आधार शैवागम है । आचार्य श्रीकण्ठ का अभिमत है कि सूक्ष्म अचित् और चित् शक्तियुक्त ब्रह्म कारण-ब्रह्म है और स्थूल या दृश्यमान अचित् चित् युक्त विश्व कार्य-ब्रह्म है । प्रस्तुत कथन में आचार्य रामानुज के विचारों का अनुसरण है । रामानुज ने सूक्ष्म अचित् और चित् को शरीर कहकर उसे ब्रह्म का कारणावस्थ रूप और व्यक्त या स्थूल प्रपंच को ब्रह्म का कार्यावस्थ रूप कहा है । ये शैव और वैष्णव दोनों आचार्य परिणामवादी होने पर भी परिणाम का आधार ब्रह्म की शक्ति मानते हैं । ये ब्रह्म को कूटस्थ नित्य और अपरिणामी सिद्ध करते हैं । आचार्य श्रीकण्ठ के मतानुसार परिणाम का अर्थ विकार है, जो परिणामी होता है, वह विकारी है। किन्तु ब्रह्म निर्विकारी है । ब्रह्म में अनेक शक्तियाँ हैं । वल्लभाचार्य का मत अविकृत परिणामवाद है । श्रीकण्ठ ने परिणाम को विकार कहा है, परिणामी ब्रह्म विकारी है । अतः उन्होंने अपने वाद को अविकृत परिणामवाद कहा है। पूर्वमीमांसक दृष्टि से ईश्वर ___ वेद के दो विभाग हैं -- कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड । कर्मकाण्ड में यज्ञ-यागादि की विधि तथा अनुष्ठान का विस्तार से वर्णन है। कर्मकाण्ड पर चिन्तन होने के कारण प्रस्तुत दर्शन कर्म-मीमांसा या पूर्व-मीमांसा के नाम से विश्रुत है। महर्षि जैमिनि मीमांसा दर्शन के प्रथम सूत्रकार हैं। प्रश्न है कि हमारे अचेतन कर्मों का फल प्रदान करने वाला कौन है ? किसी चेतन पुरुष की अधिष्ठातृता के बिना कर्म अपना फल कैसे प्रदान कर सकता है ? इस प्रश्न के समाधान में आचार्य बादरायण ने ईश्वर को कर्मफल का प्रदाता माना है और जैमिनि ने कहा-यज्ञ के कारण कर्म का फल प्राप्त होता है, ईश्वर के कारण नहीं । प्राचीन मीमांसा ग्रन्थों से ईश्वर की सत्ता सिद्ध नहीं होती पर पश्चातवर्ती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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