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________________ ईश्वर : एक चिन्तन | २६ नहीं, पर समवायी कारण है । उन्होंने समवायी कारण की परिभाषा न्याय-वैशेषिक की परिभाषा से कुछ पृथक् रूप से की है । इन्होंने ईश्वर की संस्थापना उपनिषदों के आधार पर की है । वे ईश्वर की लीला को पूर्ण स्वातन्त्र्य रूप में मानते हैं । वल्लभाचार्य ने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में एक प्रश्न उपस्थित किया कि ईश्वर तत्त्व सत्-चित् आनन्द रूप है तो उसके कार्य या परिणाम रूप विश्व में भी समवायी कारण रूप ईश्वर के सत्-चित् आनन्द रूप अंश का अनुभव होना चाहिए । पर अचित् या चित् जगत में केवल अस्तित्व अंश का ही अनुभव होता है और जीव जगत में तारतम्य से चैतन्य का अनुभव होता है । यदि ब्रह्म और विश्व का अभेद हो या विश्व समवायीकरण ईश्वर का कार्य हो तो कार्य में कारण के सभी गुणों का समान रूप से आना आवश्यक है । किन्तु वे समान रूप से अनुभवगम्य क्यों नहीं होते ? प्रस्तुत प्रश्न का समाधान करते हुए उन्होंने लिखा है कि आवरण भंग के तारतम्य के कारण समवायी कारण रूप ब्रह्म के सत्त्व आदि गुण कार्य जगत में तारतम्य से व्यक्त होते हैं । आवरण की प्रधानता के कारण अचित् विश्व में चैतन्य व्यक्त नहीं होता, किन्तु आवरण की शिथिलता के कारण चित्-जगत में चैतन्य का अनुभव होता है । शुद्ध आनन्दांश केवल ईश्वर में अभिव्यक्त होता है। सांख्यदर्शन के आचार्य विश्व का मूल कारण त्रिगुणात्मक प्रकृति मानते थे और उससे वे विश्व-वैचित्र्य की उपपत्ति करते थे । वल्लभाचार्य ने कहा -त्रिगुणात्मक प्रकृति में जो सत्त्व अंश है उससे सुख का भाव घटित नहीं कर सकते । क्योंकि सृष्टि में सर्वत्र सत्त्व का अंश विद्यमान है । यदि उसी से सुख और ज्ञान सम्भव है तो सम्पूर्ण विश्व में समान रूप से उसका अनुभव होना चाहिए । पर दृष्टिगोचर होता है कि किसी एक ही वस्तु से एक समय में अनेक जीव सुख-दुःख का अनुभव करते हैं। एक वस्तु समय के अनुसार सुख प्रदान करती है, वही वस्तु समय के अनुसार दुःख भी प्रदान करती है । अतः सुख-दुःख, ज्ञान आदि की अनुभूति सत्त्व आदि गुणमूलक नहीं है, किन्तु वह ईश्वरदत्त चित्, आनन्द शक्ति की तारतम्ययुक्त अभिव्यक्ति के कारण है। इस प्रकार उन्होंने प्रकृति के स्थान पर ब्रह्म की प्रतिष्ठा कर उसे परमेश्वर की संज्ञा प्रदान की। श्री चैतन्य महाप्रभु ने तत्त्व ज्ञान की दृष्टि से मध्व के द्वैतवाद का अनुसरण किया है । वह अचिन्त्य भेदाभेद वेदान्त का संस्थापक है । कार्य-कारण के सम्बन्ध में उनका अचिन्त्य भेदाभेद रामानुज दर्शन के अधिक सन्निकट है। चित् और अचित् शक्ति से युक्त कारणावस्था में सूक्ष्मशक्तिक और कार्यावस्था में स्थूलशक्तिक माना 1 ब्रह्मसूत्र भाष्य, १।१।३ (वल्लभाचार्य) । ३ (क) अणुभाष्य, १।१।३।। (ख) अणुभाष्य प्रकाश टीका। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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