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________________ जैन शासन-प्रभाविका अमर साधिकाएँ | ३५ उपदेश से प्रभावित होकर वि० सं० १९६० मृगशिर सुदी १३ को पाली मारवाड़ में दीक्षा ग्रहण की । आपको शास्त्रों का गहरा अभ्यास था । आपका प्रवचन श्रोताओं के दिल को आकर्षित करने वाला होता था । जीवन की सान्ध्यबेला में नेत्र-ज्योति चली जाने से आप भीम (मेवाड़) में स्थिरवास रहीं और वि० सं० २०३३ के माघ में आपश्री का संथारा सहित स्वर्गवास हुआ । आपश्री की दो शिष्याएँ हुई–महासती बदामकुवरजी तथा महासती जसकुँवरजी । महासती बदामकुवरजी का जन्म वि० सं० १९६१ वसन्त पंचमी को भीम गाँव में हुआ। आपका पाणिग्रहण भी वहीं हुआ और वि० संवत् १९७८ में विदुषी महासती अभयकुंवरजी के पास दीक्षा ग्रहण की । आप सेवाभावी महासती थीं । सं० २०३३ में आपका भीम में स्वर्गवास हुआ। महासती श्री जसकुंवरजी का जन्म १९५३ में पदराडा ग्राम में हुआ। आपने महासती श्री आनन्दकुंवरजी के पास सं० १९८५ में कम्बोल ग्राम में दीक्षा ग्रहण की और महासती श्री अभयवरजी की सेवा में रहने से वे उन्हें अपनी गुरुणी की तरह पूजनीय मानती थीं। आप में सेवा की भावना अत्यधिक थी । सं० २०३३ में भीम में स्वर्गवास हुआ। इस प्रकार यह परम्परा यहाँ तक चली। महासती श्री नवलाजी की तृतीय शिष्या केसरकुंवरजी थीं। उनकी सुशिष्या छगनकुंवरजी हुईं। महासती छगनकुंवरजी-आप कुशलगढ़ के सन्निकट केलवाड़े ग्राम की निवासिनी थीं । लघुवय में ही आपका पाणिग्रहण हो गया था। किन्तु कुछ समय के पश्चात् पति का देहान्त हो जाने से आपके अन्तर्मानस में धार्मिक साधना के प्रति विशेष रुचि जागृत हुई । आपका ससुर पक्ष मूर्तिपूजक आम्नाय के प्रति विशिष्ट रूप से आकर्षित था। आप तीर्थयात्रा की दृष्टि से उदयपुर आयीं । कुछ बहिने प्रवचन सुनने हेतु महासती गुलाबकुंवरजी के पास जा रही थीं। आपने उनसे पूछा कि कहाँ जा रही हैं । उन्होंने बताया कि हम महासतीजी के प्रवचन सुनने जा रही हैं। उनके साथ आप भी प्रवचन सुनने हेतु पहुँची । महासतीजी के वैराग्यपूर्ण प्रवचन को सुनकर अन्तर्मानस में तीव्र वैराग्य भावना जाग्रत हुई । आपने महासतीजी से निवेदन किया कि मेरी भावना त्याग-मार्ग को ग्रहण करने की है । महासतीजी ने कहा-कुछ समय तक धार्मिक अध्ययन कर, फिर अन्तिम निर्णय लेना अधिक उपयुक्त रहेगा । बुद्धि तीक्ष्ण थी। अतः कुछ ही दिनों में काफी थोकड़े, बोल, प्रतिक्रमण व आगमों को कण्ठस्थ कर लिया। परिवार वालों ने आपकी उत्कृष्ट भावना देखकर दीक्षा की अनुमति प्रदान की। आप अपने साथ तीर्थयात्रा करने हेतु विराट् सम्पत्ति भी लायी थीं । परिवार वालों ने कहा-हम इस सम्पत्ति को नहीं लेंगे। अतः सारी सम्पत्ति का उन्होंने दान कर दिया । आपका प्रवचन बहुत ही मधुर होता था। आपकी अनेक शिष्याएं थीं। उनमें महासती फूलकुंवरजी मुख्य थीं। वि० सं० १९६५ में संथारे के साथ आपका उदयपुर में स्वर्गवास हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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