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________________ ३४ | चिन्तन के विविध आयाम [खण्ड २] इस प्रकार ६७ दिन तक संथारा चला। ज्येष्ठ वदी अमावस्या वि० सं० १९५६ के दिन उनका संथारा पूर्ण हुआ और वे स्वर्ग पधारी। परम विदुषी महासती श्री सद्दाजी की शिष्याओं में महासती श्री रत्नाजी परम विदुषी सती थीं। उनकी एक शिष्या महासती रंभाजी हुई । रंभाजी प्रतिभा की धनी थीं। उनकी सुशिष्या महासती श्री नवलाजी हुईं । नवलाजी परम विदुषी साध्वी थीं। उनकी प्रवचन शैली अत्यन्त मधुर थी। जो एक बार आपके प्रवचन को सुन लेता वह आपकी त्याग, वैराग्ययुक्त वाणी से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता । आपकी अनेक शिष्याएं हुईं। उनमें से पांच शिष्याओं के नाम और उनकी परम्परा उपलब्ध होती है । सर्वप्रथम महासती नवलाजी की सुशिष्या कंसुवाजी थीं। उनकी एक शिष्या हुईं। उनका नाम सिरेवरजी था और उनकी दो शिष्याएँ हुई । एक का नाम साकरकुवरजी और दूसरी का नाम नजरकुंवरजी था। महासती साकरकुंवरजी की कितनी शिष्याएं हुई यह प्राचीन साक्ष्यों के अभाव में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। किन्तु महासती नजरकुवरजी की पाँच शिष्याएं हुई । महासती नजरकुंवरजी एक विदुषी साध्वी थीं । इनकी जन्मस्थली उदयपुर राज्य के वल्लभ नगर के सन्निकट मेनार गाँव थी। आप जाति से ब्राह्मण थीं । ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के कारण आप में स्वाभाविक प्रतिभा थी । आगम साहित्य का अच्छा परिज्ञान था। आपकी पाँच शिष्याओं के नाम इस प्रकार हैं(१) महासती रूपकुवरजी-यह उदयपुर के सन्निकट देलवाड़ा ग्राम की निवासिनी थीं। (२) महासती प्रताप'वरजी- यह भी उदयपुर राज्य के वीरपुरा ग्राम की थीं। (३) महासती पाटूजी-ये समदड़ी (राजस्थान) की थीं। इनके पति का नाम गोडाजी लुकड था। वि० सं० १९७८ में इनकी दीक्षा हुई। (४) महासती चोथाजी—इनकी जन्मस्थली उदयपुर राज्य के बंबोरा ग्राम में थी और इनकी ससुराल वाटी ग्राम में थी। (५) महासती एजाजी-आपका जन्म उदयपुर राज्य के शिशोदे ग्राम में हुआ, आपके पिता का नाम भेरूलालजी और माता का नाम कत्थूबाई था । आपका पाणिग्रहण वारी (मेवाड़) में हुआ और वहीं पर महासती के उपदेश से प्रभावित होकर दीक्षा ग्रहण की । वर्तमान में इनमें से चार साध्वियों का स्वर्गवास हो चुका है केवल महासती एजाजी इस समय विद्यमान हैं। उनकी कोई शिष्याएं नहीं हैं। इस प्रकार यह परम्परा यहाँ तक रही है। महासती श्री नवलाजी की द्वितीय शिष्या गुमानाजी थीं। उनकी शिष्यापरम्पराओं में बड़े आनन्दकुंवरजी एक विदुषी महासती हुई । वे बहुत ही प्रभावशाली थीं । उनकी सुशिष्याएँ अनेक हुई, पर उन सभी के नाम मुझे उपलब्ध नहीं हुए । उनकी प्रधान शिष्या महासती श्री बालब्रह्मचारिणी अभयकुंवरजी हुई । आपका जन्म वि० सं० १६५२ फाल्गुन वदी १२ मंगलवार को राजवी के बाटेला गाँव (मेवाड़) में हुआ। आपने अपनी मातेश्वरी श्री हेमकुंवरजी के साथ महासती आनन्दकुवरजी के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003180
Book TitleChintan ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1982
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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