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________________ ३६८ भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण भाग कीकट ११3 और उत्तरीय भाग मगध है। प्राचीन मगध का विस्तार पश्चिम में कर्मनाशा नदी और दक्षिण में दमूद नदी के मूल स्रोत तक है । हुयान्त्संग के अनुसार मगध जनपद की परिधि मण्डलाकार रूप में ८३३ मील थी। इसके उत्तर में गंगा, पश्चिम में वाराणसी, पूर्व में हिरण्यपर्वत और दक्षिण में सिंहभूमि थी। आचार्य बुद्धघोष ने मगध जनपद का नामकरण बतलाते हुए लिखा है—'बहधा पपंचानी'-अनेक प्रकार की किंवदन्तियां प्रचलित हैं। एक किंवदन्ती में बताया गया है कि जब राजा चेतिय असत्य भाषण के कारण पृथ्वी में प्रविष्ट होने लगा, तब उसके सन्निकट जो व्यक्ति खड़े थे उन्होंने कहा-'मा गधं पविस' पथ्वी में प्रवेश न करो। दूसरी किंवदन्ती के अनुसार राजा चेतिय धरती में प्रवेश कर गया तो जो लोग पृथ्वी खोद रहे थे, उन्होंने देखा । तब वह बोला-'मा गधं करोथ' । इन अनुश्रुतियों का तथ्य यही है कि मगधा नामक क्षत्रियों की यह निवास भूमि थी, अतः यह मगध के नाम से विश्रुत थी । १४ ___ महाकवि अर्हद्दास ने मगध का सजीव चित्र उपस्थित किया है। उसने मगध को जम्बूद्वीप का भूषण माना है। यहां के पर्वत वृक्षावलियों से सुशोभित थे । कल-कल छल-छल नदियों की मधुर झंकार सुनाई देती थी। सघन वृक्षावली होने से धूप सताती नहीं थी। सदा धान्य की खेती होती थी। इक्षु, तिल, तीसी गुड, कोदों मूग, गेहूँ एवं उड़द आदि अनेक प्रकार के अन्न उत्पन्न होते थे। मगध धार्मिक, आर्थिक और राजनैतिक आदि सभी दृष्टियों से सम्पन्न था। वहां के निवासी तत्त्व चर्चा, स्वाध्याय आदि में तल्लीन रहते थे ।११५ ११२. कालेश्वरं समारभ्य तप्तकुण्डान्तकं शिवे । मगधाख्यो महादेशो यात्रायां न हि दुष्यति ।। -~-शक्तितंत्र ३७।१० ११३. दक्षिणोत्तरक्रमेणैव क्रमात्कीकटमागधौ । ---वहीं० ३।७।११ ११४. बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, साहित्य सम्मेलन प्रयाग संस्करण पृ० ३६१ ११५. मुनि सुव्रत काव्य, अर्हद्दास रचित, १।२२, २३ व ३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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