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________________ ३३२ भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण जमीन में घुस गया । बलराम और कृष्ण ने बहुत प्रयत्न किया पर वह बाहर नहीं निकल सका । उसी समय द्वैपायन देव आया और बोला- अरे, तुम दोनों क्यों निरर्थक श्रम कर रहे हो ? मैंने पूर्व ही कहा था कि तुम 'दोनों को छोड़कर कोई भी तीसरा व्यक्ति बाहर नहीं निकल सकेगा । तुम्हें ज्ञात होना चाहिए मैंने इस कार्य के लिए अपना महान् तप बेचा है । " यह सुनकर वसुदेव, देवकी और रोहिणी ने कहा - 'पुत्रों ! अब तुम चले जाओ, तुम दो जीवित हो तो सभी यादव जीवित हैं । तुमने हमें बचाने के लिए बहुत श्रम किया किन्तु हम बड़े अभागे हैं अब हमें अपने कर्म का फल भोगना पड़ेगा ।' ऐसा कहने पर भी बलराम और श्रीकृष्ण ने अपना प्रयत्न छोड़ा नहीं । वसुदेव, देवकी और रोहिरणी ने भगवान् अरिष्टनेमि की शरण को ग्रहण कर चारों प्रकार के आहार का त्याग कर संथारा किया, नमस्कार महामंत्र का जाप करने लगे । उसी समय द्वैपायन देव ने अग्नि की वर्षा की और तीनों आयु पूर्ण कर स्वर्ग में गए । " १६ श्रीकृष्ण का द्वारिका से प्रस्थान : निराश और विवश बलराम तथा श्रीकृष्ण द्वारिका से बाहर निकल कर जीर्णोद्यान में खड़े रह कर द्वारिका को जलती हुई देखने लगे ।" उन्हें अत्यन्त दुःख हुआ । अन्त में श्रीकृष्ण ने कहा- भाई ! अब मैं यह दृश्य नहीं देख सकता । हमें अन्यत्र चलना चाहिए । पर प्रश्न यह है कि बहुत से राजा हमारे विरोधी हो गए हैं । ऐसी स्थिति में हमें कहां चलना चाहिए ?" १५. (क) अहो पुरापि युवयोराख्यातं यद्य वां विना । न मोक्षः कस्यचिदिह विक्रीतं हि तपो मया ॥ (ख) हरिवंशपुराण ६१।८६ १६. त्रिषष्टि० ८।१११८१-८८ १७. रामकृष्णौ बहिः पुर्या जीर्णोद्यानेऽथ जग्मतुः । दह्यमानां पुरीं तत्र स्थितौ द्वावप्यपश्यताम् ॥ Jain Education International - त्रिषष्टि० ८।११।८० - त्रिषष्टि० ८११८६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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