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________________ द्वारिका में श्रीकृष्ण २४५ पुत्र प्रद्य म्न कुमार की अपलक प्रतीक्षा कर रही है। वह अब तक क्यों नहीं आया ! यदि सत्यभामा के पुत्र का विवाह प्रथम हो जायेगा तो शर्त के अनुसार मुझे अपने सिर के केश कटवाने पड़ेंगे । मैं पुत्र व पति के होते हुए भी कुरूप बन जाऊगी। वह चिन्तातुर बैठी ही थी कि उसी समय विद्या के बल से प्रद्य म्न कुमार ने एक लघु मुनि का रूप बनाया और रुक्मिणी के महल में प्रवेश किया। कहा-- अरी श्राविका ! क्यों इतनी चिन्तामग्न है ? मैं सोलह वर्ष का दीर्घ तपस्वी हूँ, मुझे आहारदान दे । रुक्मिणी ने मुनि का अभिवादन करते हुए कहा मुनिवर ! मैंने एक वर्ष का तप सुना है, पर आप सोलह वर्ष के तपस्वी हैं, यह जानकर आश्चर्य होता है। अस्तु, जो भी हो, परन्तु महाराज ! इस समय सिंह केसरिया मोदक के अतिरिक्त कुछ भी खाद्य वस्तु तैयार नहीं है, और ये मोदक श्रीकृष्ण के अतिरिक्त अन्य को हजम नहीं होते हैं । __ मुनि ने कहा- तुम चिन्ता न करो, तप के दिव्य प्रभाव से वे सभी हजम हो जायेंगे। रुक्मिणी ने मुनिराज को लड्डू दिये । मुनि ने वहीं बैठकर सारे लड्डू खा लिये। उसी समय सत्यभामा की दासियां रुक्मिणी के केशों को काटने के लिए वहां पर आगई और बोलीं-महारानी, हमें सत्यभामा ने भेजा है। प्रद्युम्न ने जो विद्या के बल से मुनि बना हुआ था, विद्या के प्रभाव से सत्यभामा और उसकी दासियों के ही केश काट दिये। ७१. वसुदेवहिण्डी में मुनि खीर का भोजन मांगते हैं उसमें मोदक बहराने का प्रसंग नहीं है--सो वासुदेवसीहासणे उवविट्ठो । भणिओ य रुप्पिणीए- खुड्डग ! एयमासणं देवयापरिग्गहियं, मा ते को वि उवघातो भविस्सति अण्णम्मि आसणे णिसीयं त्ति । सो भणइअम्हं तवस्सीणं ण पभवति देवता । आणत्ता य चेडीओ देवीएसिग्धं पायसं साहेइ, मा किलम्मउ तवस्सी । पज्जुण्णण य अग्गी थंभिओ न तप्पती खीरं। -वसुदेवहिण्डी पृ. ६५ प्र० भाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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