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________________ तीर्थकर जीवन १०७ इस प्रकार भगवान् अरिष्टनेमि ने श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका रूप तीर्थ की संस्थापना की और तीर्थंकर पद प्राप्त किया। जैन परम्परा में गणधर : जैन परम्परा में तीर्थंकर शब्द जितना प्राचीन व अर्थपूर्ण है उतना ही प्राचीन अर्थपूर्ण गणधर शब्द भी है। तीर्थंकर जहाँ तीर्थ के निर्माता होते हैं, तथा श्रुत रूप ज्ञान परम्परा के पुरस्कर्ता होते हैं वहाँ गणधर श्रमण, श्रमणी रूप संघ की मर्यादा, व्यवस्था व समाचारी के नियोजक, व्यवस्थापक तथा तीर्थंकरों के अर्थ रूप वाणी को सूत्र रूप में संकलन करने वाले होते हैं ।२५ मल्लधारी आचार्य हेमचन्द्र ने विशेषावश्यकभाष्य की टीका में लिखा है-उत्तम ज्ञान-दर्शन आदि गुणों को धारण करने वाले गणधर होते हैं ।२२ प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में गणधर एक अत्यावश्यक उत्तरदायित्व पूर्ण महान प्रभावशाली व्यक्तित्व होता है। गणधर कितने : समवायाङ्ग२3 आवश्य कनियुक्ति,२४ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र२५ उत्तरपुराण२६ आदि श्वेताम्बर तथा दिगम्बर ग्रन्थों में भगवान् अरिष्टनेमि के ग्यारह गण और ग्यारह गणधर बताये गये हैं। ग्यारह २०. द्वे सहस्र नरेन्द्रास्ते कन्याश्च नृपयोषितः । सहस्राणि बहून्यापुः संयमं जिनदेशितम् ।। शिवा च रोहिणी देवी देवकी रुक्मिणी तथा । देव्योऽन्याश्च सुचारित्र गृहिणां प्रतिपेदिरे ॥ यदुभोजकुलप्रष्ठा राजानः सुकुमारिकाः । जिनमार्गविदो जाता द्वादशाणुब्रतस्थिताः ।। -हरिवंशपुराण ५८॥३०८ से ३१० पृ० ६६२ भारतीय ज्ञानपीठ २१. अत्थं भासई अरहा सुत्त गुफइ गणहरा निउणा। -आवश्यक नियुक्ति गा० १६२ २२. अनुत्तरज्ञानदर्शनादि गुणानां गणं धारयन्तीति गणधराः । -विशेषावश्यकभाष्य टीका गा० १०६२ २३. सम-११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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